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भक्तों की सुनते हैं बाबा नीम करोली

एक युवा तेजस्वी साधक अपनी लय में चिमटा कमंडल जैसे परम्परागत साधुओं के सामान सहित टुण्डला की ओर जाती एक रेलगाड़ी के प्रथम श्रेंणी के डिब्बे में बैठ गया। एंग्लो इंडियन टिकट चैकर को इस अधनंगे साधु की यह धृष्टता नहीं भायी । उसने क्रोधित होकर साधु से जब टिकट मांगा तो साधु ने टिकट देने से भी इंकार कर दिया। इस पर टिकट चैकर ने उस साधु को जबर्दस्ती रेलगाड़ी रोक कर नीचे उतार दिया। वह साधु भी अपनी मस्ती में था। चिमटा गाढ़ कर आसन जमा कर वह एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गया। उस गाड़ी में या़त्रा करने वालों ने इस घटना को सामान्य घटना ही माना । परन्तु जब इंजन ड्राइवर ने गाड़ी को आगे बढ़ाने की कोशिश तो काफी कोशिश के बाद भी गाड़ी अपनी जगह से टस से मस नही हुई तो यात्रियों के अनुरोध पर उस टिकट चैकर को बाबा से माफी मांगनी पड़ी तब जाकर कहीं रेलगाड़ी अपने स्थान से आगे बढ़ी। बाबा ने रेल अधिकारियों से यह भी वायदा कराया कि उस स्थान पर एक रेलवे स्टेशन बनवाया जायेगा और गाडि़यां वहां रूका करेंगी। यह रेलवे का हाल्ट आज नींब करौरी स्टेशन कहलाता है। सिद्ध संत बाबा लछमन दास इसी घटना के बाद बाबा नींब करौरी या नीम करोली बाबा के नाम से चर्चित हुए।

सन् 1962 का चीनी आक्रमण हो रहा था। लोग चिन्तित थे । कुछ लोगों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह राय दी कि दिल्ली की अपेक्षा किसी अन्य स्थान से राजधानी का संचालन यु़द्ध काल में उपयुक्त होगा। परन्तु पंडित नेहरू असंमजस में थे। किसी ने उनको बाबा नींब करोरी से सलाह करने की राय दी। बाबा ने कहला भेजा-चीनी सेना की तीसरे दिन से वापसी हो जायेगी। वह इस धरती पर रूकेगा नहीं। उसका आक्रमण तो हमें जगाने के लिए हुआ हेै। बाद में चीन तेजपुर से वास्तव में वापस लौट गया।


बाबा को लोग महामानव, त्रिकालदर्शी, सिद्ध संत, चमत्कारी पुरूष आदि सैकड़ों विशेषण से सम्बोधित करते थे। परन्तु वह वास्तव में क्या थे शायद किसी को नहीं मालूम। उन्होनें जिस व्यक्ति को जिस रूप में दर्शन देकर कृतार्थ किया उसने बाबा का गुणगान उसी अनुसार किया। बाबा कहते थे- भक्त और प्रभु तो एक ही जाति के हैं। उनको आत्मिक सम्बन्घ ही जोडे़ रखता है। बाबा के भक्तों ने भी शायद यही कार्य कारण का सम्बन्ध बाबा से जोड़ा और इसीलिए अनेक भक्त बाबा में सर्व शक्तिमान प्रभु को देखते थे। किसी ने उन्हें श्री हनुमान का अवतार माना तो किसी ने उनकी अलौकिक लीलाओं के कारण उनमें श्री राम को देखा। हरि कथा अनंता के अनुसार ज्यों -ज्यों बाबा के भक्तों की संख्या बढ़ती गयी त्यों- त्यों उनके नाना रूपों का आस्वादन उनके भक्तों को होता गया । परन्तु उन्होंने शायद ही किसी को अपना शिष्य बनाया हो । वे कहते – हम शिष्य नहीं भक्त बनाते हैं। इसलिए उनके ह्दय कपाट सभी के लिए खुले हुए थे। उसमें कोई जाति भेद न था ,लिंग भेद न था, आयु भेद न था न ही छेाटे- बड़े बालक वृद्ध का ही कोई भेद था। वे सबके लिए थे सब उनके लिए थे।

फिर भी उनके भक्तों में पंडित जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपति वी.वी.गिरी , चौधरी चरणसिह, उपराष्ट्रपति गोपालस्वरूप पाठक, कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, जुगल किशेार बिड़ला, न्यायमूर्ती वासुदेव मुकर्जी, सुमित्रानंदन पंत, जनरल मैकन्ना से लेकर न जाने कितने ज्ञात अज्ञात भक्तों की श्रंखला थी । उनकी अमेरिकी भक्त ताओस कहती हैं-सबसे कठिन कार्य था बाबा के साथ रहते हुए बाबा के रहस्यमय व्यक्तित्व को जान पाना। जिसने भी कोशिश की वह बाबा की रहस्यमय लीलाओं से छला गया। वह बाबा के प्यार में इतना खो जाता कि उसे यह याद ही नहीं रहता कि उसे बाबा के बारे में जानना क्याहै। तब सर्व समर्थ शब्द भी उनके लिए छोटा पड़ जाता। बाबा तो केवल अनुभूति के रूप में ही महसूस किये जा सकते हैं।


बाबा जी का प्रारम्भिक जीवन किस तरह से कहां -कहां साधना में बीता प्रामाणिक रूप में ज्ञात नही है। वे किसी भी स्थान पर एक समय से ज्यादा रूकते नहीं थे इसलिए भी उनके सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी कम है। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने कभी उनके सम्बन्ध में प्रकाशित करवाना चाहा तो बाबा ने उन्हें कड़ी फटकार लगाई थी। फिर भी अब जो ज्ञात है उसके अनुसार उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के अकबरपुर गांव में जन्में बाबा ने सम्पन्न ब्राह्मण परिवार को छोड़ कर गुजरात के मोरवी कस्बे से थोड़ी दूरी पर स्थित बबानिया नामक स्थान पर सर्वप्रथम योग साधना प्रारम्भ की। विमाता के व्यवहार से क्षुब्ध हो बाबा ने जनकल्याण के लिए ग्यारह वर्ष की आयु में ही घर छोंड़ दिया। बबानिया में बाबा ने एक तालाब में रहकर साधना की और संभवतः इसी स्थान पर सर्वप्रथम अपने आराध्य हनुमान जी की प्रतिमा को तालाब के किनारे स्थापित किया। यहां श्री रामबाई के आश्रम में भी बाबा कुछ समय रहे। कुछ समय के अनतराल से बाबा ने बवानिया ग्राम को रामबाई मां के सुपुर्द कर नींब करोरी को अपना साधना स्थली बनाया। प्रारम्भ का नाम लक्ष्मी नारायण शर्मा इस बीच कहीं बिला गया और बाबा नींब करौरी में लछमनदास के रूप में निवास करते रहे। यह नाम उन्हें गुजरात में किसी वैष्णव संत ने दिया था। इसी वैष्णव संत ने बाबा को बैरागी वेष भी धारण करवाया। बाबा के जो प्रारम्भिक चित्र उपलब्ध हैं उनसे प्रतीत होता है कि तब आप जटाधारी सन्यासी थे।


नींब करौरी में बाबा ने एक गुफा में अपना आसन जमाया। यहीं से बाबा की अलौकिक लीलाऐं भक्तों की जानकारी में आयीं। यद्यपि वे अपने अलौकिक स्वरूप को भक्तों की नजर से सैदेव ओझल करने का प्रयास करते रहे तो भी दुखियों के प्रति उनकी दया भावना ने उन्हें जन सामान्य का चिर परिचित आत्मीय बना दिया। नींब करौरी में बाब लगभग अठारह वर्ष तक रहे। वहां भी प्रतिवर्ष भंडारें का आयोजन होता रहा। बाद में बाबा ने एक दूसरी गुफा में अपना आसन जमाया।और उसी के पास बाबा ने हनुमान मंदिर की स्थापना की । यहीं बाबा ने अपनी जटायें भी त्याग दीं। इस बीच बाबा एटा, मैनपुरी ,फतेहगढ़ आदि भी घुूमते रहे। फतेहगढ़ ही कर्नल मैकन्ना बाबा का भक्त बना। मैकन्ना बाद में बाबा के आशीर्वाद से जनरल भी बना। इसके बाद ही बाबा का उत्तराखंड में लीला क्रम प्रारम्भ् हुआ। यद्यपि सन् तीस के दशक से ही उत्तराखंड में आने लगे थे परन्तु वर्ष 1942-43 के बाद तो उत्तराखंड का कूर्मांचल उनका प्रमुख रमण क्षेत्र बना।


इस क्षेत्र में वे भक्त वत्सल के रूप् में ज्यों ही अवतरित हुए, लोग दीवाने से होकर उनके पीछे होते गये। सांसारिक दुखों से त्रस्त , नाना रोगों से पीडि़त, संतान के इच्छुक, मोह माया में फंसे लोग उनके होते चले गये और बाबा ने भी किसी को निराश नही किया। हर की मनोकामना पूरी होती चली गयी। उनकी कृपा से हतप्रभ होकर लोग उनकी अनुकम्पा पाने के लिए उनके पीछे दौड़ते। संभवत उन्हेें एक ऐसी दिव्य आत्मा मिली थी जिसने पाखंड को छू भी नहीं रखा था। वे न चंदन का त्रिपुंड लगाते थे, न वे लबादाधरी साधु थे ,न ही वे वस्त्रों और संस्कृत के श्लोक से अपनी ओर आकर्षित करने वाले प्रकांड पंडित की भाव भंगिमा अपनाये विद्वान। वे तो केवल एक धोती से निर्वाह करने वाले कम्बलधारी लोक हितार्थ अवतरित साक्षात पवन तनय थे। जगत सृष्टा की तरह वे भी समस्त सृष्टि में कल्याण भाव को जागृत करना चाहते थे। इसलिए कभी किसी दुखिया का दुख देखा नहीं गया। उनका बीज मंत्र था- गरीबों की सेवा करो यही ईश्वर प्राप्ति का सच्चा मार्ग है।


प्रतीत होता है कि बाबा वायु की तरह गतिमान थे। उनका पंचतत्वों पर निश्चित नियंत्रण था। इसलिए वे एक समय में अनेक स्थानों पर दिखाइ देते थे। किसी भक्त ने विनीत भाव से याद किया तो हजारों मील दूरी से भी उनके पास पहॅुच जाते । आगत उनके सामने वर्तमान की तरह स्पष्ट होता। ताले बंद कुटिया से सीधे किसी भक्त के घर पहुंच जाना उनके लिए सामान्य घटना थी । मुसीबत में पड़े अपने भक्त को कष्ट मुक्त करने के बाद वे अदृष्य हो जाते ।

बाबा ने कूर्मांचल में ज्यों ही प्रवास करना शुरू किया हनुमान मंदिरों की श्रंखला का निर्माण होना शुरू हो गया । नैनीताल में हनुमानगढ़ ,कैची धाम , भूमियाधार, काकड़ीघाट में उनकी प्रेरणा और अनुकम्पा से ही मंदिरों का निर्माण हुआ।

सिद्ध संतो की परम्परा के अग्रणी इस संत ने 10 दिसम्बर 1973 को अपनी शरीर लीला वृंदावन में सम्पन्न की और निराकार में प्रवेश किया। बाबा कहा करते थे-गुरू अविनाशी, अमर और मृत्यु तथा जरा से परे होता है। लाखों की संख्या में उनके भक्त अनुभव करते हैं कि निराकार में रह कर आज भी वे हर पल न केवल उनके समीप हैं अपितु उन्होंने भगवान श्री कृष्ण की तरह अपने भक्तों के हर योग और क्षेम का भार स्वंय वहन कर रखा है।

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