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कुमाऊँ में होली गायन

ऋतुराज बसंत के आगमन और फागुन के प्रारम्भ होते ही उत्तर भारत में सर्दी का खुशनुमा मौसम उमंग भरे दिलों में मीठी सिहरन भर देता है । ऋतुराज बसंत फूलों की मादकता से मानव मन को रंग डालते हैं । फगुनाहट के परिवेश में होली पर्व को कारक बनाकर गीत संगीत के माध्यम से अभिव्यक्ति की अपनी परम्परा है । कुमाऊँ में होली गायन की आंचलिक विशेषताओं के साथ अपनी विशेष शेैली विकसित हुई है ।

कूर्माचल में मनाई जाने वाली होली की भूमिका पूस के पहले इतवार से बननी प्रारम्भ हो जाती है । इस दिन से बैठकी होली का जो सिलसिला शुरू होता है वह होली के टीके तक जारी रहता है । होली की दो शैलियां प्रचलित है- खड़ी होली और बैठकी होली । खड़ी होली प्रायः रास्ता चलते या आंगन जैसे खुले स्थानों पर गायी जाती है । टोलियों में सामूहिक रूप से गायी जाने वाली होली में आंचलिक लोक संगीत के तत्वों का समावेश है । वृत्ताकार श्रृंखला में पदसंचालन की कलात्मक शेैली के अन्तर्गत मजीरा, खड़ताल, ढोलक की थाप के साथ गायी जाने वाली होली के गीतों में उल्लास झलकता है ।

स्थानीय परम्परा के अनुसार फागुन शुक्लपक्ष की एकादशी को चीर बंधन किया जाता है । सामान्यतः पइयां के पेड़ की हरी शाख काटकर लाई जाती है जिसे गली-मोहल्ले के मध्य निर्धारित स्थल पर स्थापित किया जाता है । घर-घर से लायी रंगीन कपड़े की कतरने बांध कर होलिका की परिकल्पना से निहित चीर बंधन की मान्यता है । चीर पर रंग छिड़क कर ही रंग भरी होली की शुरुआत होती है ।

बुजुर्ग बताते है कि पहले पहाड़ में चीरबंधन फागुन शुक्ल अष्टमी को ही किया जाता था । परन्तु अब समय के साथ होली मनाने के तरीके में भी थोड़ा बदलाव आया है । चीरबन्धन रंग पड़ने के साथ एकादशी की तिथि को संपन्न होने लगा है। इसी के साथ ही अबीर, गुलाल की रंगीनियों से भरपूर होली पक्ष का आरम्भ हो जाता है ।

पर्वतीय क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों में भी चीरबंधन के साथ ही खड़ी होली की शुरुआत होती है । प्रतिदिन चीर के सन्मुख होली गायन होता है जिसके बाद टोलियां अपने गांव व मुहल्ले के लोगों के आंगन में जाकर खड़ी होली गाकर शगुन करते हैं । प्रारम्भिक तिथियों पर प्रायः भक्ति परक गीत गाये जाते हैं, लेकिन होली का रंग ज्यों- ज्यों चटख होता जाता है, उन्मुक्त श्रृंगार तथा मीठी चुहल से भरपूर होली गायी जाती हैं ।

राघव पंत

बैठकी होली का समाँ अपने आप में अनोखा ही होता है । कुमाऊँ की होली बैठकों में हिन्दुस्तानी संगीत की उपशास्त्रीय विधा अपने आंचलिक रंग मे गमकती है । राग रागनियों में रचे बसे गीतों से मुख्य गायक रागदारी की शुरुआत करता है तो रसिक श्रोता झूम-झूमकर भाग लगाते हैं । भाग लगाना दरअसल महफिल में आये गुणी तथा रसिक श्रोताओं की गायन में भागीदारी होती है जिसमें वे स्वतन्त्र रूप से बढ़त फिरत कर मुख्य गायक को सहयोग तो करते ही हैं साथ ही होली गायन का भरपूर स्वाद भी लेते हैं । पीलू, श्याम, कल्याण, काफी, जंगला काफी, खमाज, झिझोटी, शहाना, देश, बिहाग, जोगिया, जैजैवंती, भैरवी आदि रागों में गायी जाने वाली होलियां पारस्परिक रूप से समय के अनुसार गायी जाती हैं।

बैठकी होली का मूल भारतीय हवेली संगीत में निहित है। जानकार लोग बताते हैं कि शास्त्रीय संगीत के घरानेदार संगीतज्ञ जब कूर्माचल भ्रमण पर जाये तो उन्होंने ब्रज की होली की कुछ बंदिशें यहीं पर गायी थीं । लम्बे समय के अन्तराल तथा पीढ़ी दर पीढ़ी सम्प्रेक्षण के दौरान होली गायन की जो तकनीक कुमाऊँ की आंचलिक विशेषता बन गई उसमें स्वर सामंजस्य तथा बढ़त-फिरत का कायदा निश्चित हो गया । इसके संगीत की स्वाभाविक कशिश और रंगत ने होली गायन की लोकप्रियता को बरकरार रखा ।

रनीश एव हिमांशु साह

होली का आधार शास्त्रीय संगीत की हदबंदी रहती है। मनोहारी काव्य तथा प्रस्तुतीकरण में अलंकारिक सौन्दर्य रहता है । भाव प्रधानता होने के कारण होलियों में मिश्रित रागों का प्रचलन है ।

गायन की स्वतंत्रता और आंचलिक विशिष्टता से भरपूर कुमाऊँ में पूस के पहले इतवार से चलने वाली होली महफिलों का रंग भी दिनो दिन बदलता है । शुरुआती दौर में जहां भक्ति प्रधान अष्टपदी निर्गुंण तथा सूफी ठाठ का दौर चलता है, वहीं बसंत पंचमी के बाद श्रृंगार मिश्रित होलियों का गायन मिलता है । रंग पड़ने के दिन से मस्ती भरी या धूम होलियों का चलन है जो टीके के दिन तक बदस्तूर जारी रहता है ।

पूस के इतवार से लोगों के यहां जो महफिलें जमने का सिलसिला शुरू होता है, वह धीरे-धीरे विस्तार पाकर अधिकांश घरों की परम्परा बन गया है । पहले तो शिवदत्त मुख्तयार साहब और पंडित श्यामदत्त जोशी जी के घर लगातार ६ माह तक होली बैठकें होती थीं । बाद के दिनों में हेमन्त वैद्य जी के घर पूस के इतवार से टीके तक नित्य बैठक का क्रम रहा । इसके अलावा शारदा संघ नैनीताल तथा हुक्का क्लब अल्मोड़ा जैसे संगठनों ने इस विरासत को आगे बढ़ाकर और सम्पन्न बनाया है।

गायन की आंचलिक शैली में गौर्दा, गुमानी जैसे कवियों की रचनाओं के बाद अन्य कवि भी उस परम्परा को समृद्ध कर होली गीत रच रहे हैं । कुमाऊँनी होली गायकों में तारी मास्साब के नाम से जाने जाने वाले स्व० तारा प्रसाद पांडे ने होली संगीत का सामयिक शुद्धिकरण ही नहीं किया वरन् नये रागों तथा तालों में होली गाकर नये आयाम भी प्रस्तुत किये । होली गायन की स्थानीय शैली में ठुमरी अंग की बारीकियों को प्रस्तुत करने का श्रेय कमोबेश मास्साब को ही जाता है।

Himvan

चीरदहन का कार्यक्रम पूर्णमासी के दिन सम्पन्न होता है । रंग गुलाब की धूम के बाद टीेके के दिन समाप्त होने वाला यह त्योहार होल्यारों को एक तरह से बिरही की भांति छोड़ जाता है ।

गैलरी फोटोः रनीश एवं हिमांशु साह

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