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प्रस्तर शिल्प में गंगा

भारतीय मानस में गंगा का स्वरूप केवल जलधारा अथवा वेगमती सरिता का नहीं है। वे समूचे भारतीय समाज में जिस रूप में बसी हैं उसकी व्याख्या करना भी सम्भव नहीं है। उनका स्वरूप आध्यात्मिक है, दिव्य है, वत्सल है, चारू है और मां के आंचल जैसा मोहक स्पर्श देने वाला है। हजारों वर्षों से उनके आध्यात्मिक स्वरूप ने इस देश के जन-जन को श्रद्धा से आप्लावित किया है। उन्होंने ऋषि मुनियों तक को अपने इस अलौकिक देवरूप सम्मोहन में इस तरह बांधा है कि उन्हें भी मुक्ति का सबसे सरल उपाय गंगा दर्शन ही लगा-गंगा त्व दर्शनात् मुक्ति।

वैसे भी सदानीरा नदियों के पूजनीय स्वरूप को भारतीय संस्कृति और वाड;मय में अतीव महत्व दिया गया है। नदी देवियों के रूप में गंगा और यमुना की पूजन परम्परा भारत में सदियों से चली आ रही है। अंजुली में गंगा जल को लेकर अपनी सत्यता की परीक्षा देने की परम्परा तो प्राचीन काल से लेकर आज तक कायम है। प्राचीन साहित्य में गंगा-यमुना का उल्लेख अपार श्रद्धा से किया गया है। ऋग्वेद के नदी सूक्त, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, रामायण, महाभारत,, अग्निपुराण, पद्म पुराण श्रीमद्भागवत, देवी भागवत आदि में उनका स्मरण अतीव सम्मान से किया गया है।

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अग्निपुराण में वर्णित गंगा का दिव्य स्वरूप श्वेतवर्णा है वे कलश व कमल धारण करती हैैं। मकर उनका वाहन है जिसपर वे सैदेव आरूढ़ होती हैं। तथापि स्कन्दपुराण, भविष्य पुराण, तंत्रसार आदि में उनका स्वरूप चतुर्भुजी देवी के रूप में निदर्शित किया गया है। वे जल देवता वरूण के साथ, स्वतंत्र अथवा द्वार शक्तियों के रूप में उल्लेखित हैं। द्वार देवताओं में भी गंगा को पंचदेवो में से एक माना गया है। कालीदास ने गंगा को चामर धारिणी अंगरक्षिकाओं में से एक बताया है।

सौजन्यः राजकीय संग्रहालय, अल्मोड़ा

गंगा का प्रतिमा रूप में अंकन गुप्त काल में ही सर्वप्रथम प्रारम्भ हुआ। तब ही से गंगा-यमुना को स्त्री शक्तियों के रूप मे मंदिरों के प्रवेश द्वार पर निरूपित करने की परम्परा भी प्रारम्भ हुई । गंगा को पवित्रता और यमुना को समर्पण का प्रतीक भी माना गया। आशय था कि मंदिरों में केवल वही प्रवेश के योग्य हैं जो पवित्र हैैं तथा देवता के प्रति समर्पण की भावना रखते है। मंदिरों के प्रवेशद्वारों पर गंगा को मकर पर तथा यमुना को कूर्म पर पूर्णघट सहित निरूपित किया जाने लगा। देवता का जीवरूप मकर जल की अपार शक्ति एवं घट मंगल का प्रतीक है जिसमें भरा पानी अमृत के समान पवित्र गंगा जल ही है।

उत्तराखंड तो गंगा-यमुना का मायका है। ऐसे में कैसे सम्भव था कि कला एवं शिल्प में गंगा-यमुना का अंकन यहां नहीं मिलता। भारत के अन्य भागों की तरह समूचे उत्तराखंड में भी गंगा का मंदिरो की भूषा के रूप में प्रचुरता से अंकन मिलता है। गंगा की मंदिर द्वारों पर बनी सुन्दर प्रतिमायें प्रकाश में आयी हैं। प्रायः इनको द्वारशाखा कें निचले हिस्से में स्थापित किया गया है। यद्यपि गंगा की स्वतंत्र प्रतिमाये कम है परन्तु दुर्लभ नहीं हैैं। उत्तरांचल में आठवीं शती से लेकर 14वीं शती तक की गंगा की प्रतिमायें उपलब्ध हैं।

यहां विभिन्न अलंकरणों से सज्जित गंगा-यमुना की प्रतिमायें प्रवेशद्वारों में मांगलिक प्रतीकों के रूप में स्थापित की गयी हंै। प्रायः वे शीर्ष पर मुकुट, कानों में कर्णकंुडल, बाजुओं में बाजूबंध तथा साड़ी से सज्जित मिलती हैं। उन्हें प्रवेशद्वारों में क्रमशः बांयी और दायीं ओर स्थापित किया गया है। उन्हें मंगलघट सहित दिखाने की परम्परा है। कभी-कभी वे अनुचरों सहित भी दिखाई देती हंै। स्वतंत्र प्रतिमाओं में वे छत्र धारिणी हैं। छ़त्र का दंड प्रायः अनुचर अथवा परिचारिकायें धारण करते है। त्रिभंग मुद्रा उनकी प्रिय मुद्रा है।

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इस प्रकार के अंकन उत्तराखंड में कई स्थानों पर प्राप्त होता है। अल्मोड़ा जनपद में निर्मित मंदिर समूह की धर्मशाला के प्रवेशद्वार के निचले स्तम्भों में गंगा का अंकन किया गया है। इस अलंकृत द्वार स्तम्भ में वे शैव द्वारपालों के साथ दिखाई गयी हैं। दोनों नदी देवियां मंगलघट लिये हुए । द्वारपाल जटाजूट से सज्जित हैैं।
इसी तरह गंगा का उत्कीर्णन अन्य मंदिरों में भी है। ये देानों ही प्रतिमायें शीर्ष मुकुट, कानों मे कंुडल, हाथों में बाजूबंध से सज्जित तथा अधोवस़्त्र धारण किये हुए हैं। प्रतीत होता है कि ये नवीं शती में बनी होंगी।

गंगा की स्वतंत्र प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। ये शिल्प की दृष्टि से दर्शनीय हैैं। बानठौक की गंगा प्रतिमा भग्न है। यह शैली की दृष्टि से 10वीं शती की जान पड़ती है। इसी प्रकार की एक प्रतिमा अल्मोड़ा जनपद से भी प्राप्त हुई है। इस प्रतिमा में भी परम्परागत लक्षण लांछन मौजूद है। यहां गंगा की मूर्ति मकरस्थ है तथा त्रिभंग मुद्रा में दायें हाथ को उपर उठाये है। सम्भवतः इस हाथ में उन्होंने कलश घारण किया होगा परन्तु यह हाथ भग्न है। गंगा के साथ ही उनकी एक उपासिका को भी चित्रित किया गया है । गंगा जिस छ़त्र के नीचे खड़ी है उसका दंड एक अन्य उपासिका ने अपने हाथ में ले रखा है। एक अन्य उपासिका भी त्रिभंग मुद्रा में प्रदर्शित की गयी है। पूर्णघट को अपने शीर्ष पर धारण किये एक अन्य स्त्री भी है। नीचे पाश्र्वाै में एक उपासक भी करबद्ध मुद्रा में है। देवी सामान्य अलंकरण से आभूषित हैं।

कुमाऊँ में नटराज शिव के साथ भी गंगा यमुना का अंकन मिलता है। एक मंदिर में शुकनास पर नटराज शिव गजहस्त मुद्रा में विराजमान है। नटराज शिव के बायें पाश्र्व में निरूपित मकरवाहिनी द्विभुजी गंगा का अंकन अत्यंत मनोहारी है। उनके दायें हाथ मे मंगल कलश है। कंठ में एकावलि से आभूषित एवं बाहों में लहराते उत्तरीय ने इस प्रतिमा को अतीव सुन्दरता प्रदान की है। केशराशि को बांध कर बनाया गया जूड़ा और उसमें टंका पुष्प कलाकार की कला दक्षता का परिचायक है। पाश्र्व मे यमुना का अंकन किया गया है। दोनों नदी देवियां त्रिभंग मुद्रा में हैं। कंधे तक उठे हाथों में मंगलघट अंकित किया गया है। उनके पाश्र्व में स्थूल शरीर एवं कौपीनधारी एक मुरली वादक है। घंुधराली अलकों वाले यह वादक तल्लीनता से अपने कार्य में लीन है। गंगा का एक दुर्लभ चित्रण बाह्य रथिका में भी है। यहां गंगा-यमुना दंड धारिणी सेविकाओं सहित निरूपित है। उनके वाहन भी उनके साथ ही है। गंगा कटिहस्त मुद्रा में खडी गंगा अपनी सेविकाओं सहित भी दर्शायी गयी है।

यह उल्लेखनीय है कि गुुप्तकाल की कला से ओतप्रोत उत्तरांचल में गंगा यमुना की प्रतिमाये मंदिरों के प्रवेशद्वारों की भूषा के रूप में लगभग नवीं-दसवीं शती तक तो प्रचुरता से उपलब्ध होंती है परन्तु उनके बाद शनै शनै उनका रूपांकन कम होता जाता है। अग्निपुराण में उल्लेख है कि गंगा यमुना के हाथों में मंगल घट अवश्य होना चाहिये । अधिकांश मंदिरों की द्वारभूषा के रूप में इस परम्परा का पालन भी किया गया है परन्तु पलेठी एवं घुनसेरा गांव की गंगा-यमुना विष्णुधर्माेत्तर पुराण के अनुरूप फुल्ल पद्म से अलंकृत है। यहां यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि गंगा-यमुना का अंकन द्वारभूषा के रूप में केवल विष्णु अथवा शैव मंदिरों में ही प्रचुरता से नहीं किया गया अपितु सूर्य मंदिरों में भी वे लोकप्रिय अलंकरण के रूप में स्थान पायी हैैं। टिहरी जनपद में प्राचीन सूर्य मंदिर से प्रकाश में आयी गंगा सम्भवतः सबसे प्राचीन और भव्य है। विद्वान मानते हैं कि कला और सुगढ़ता की दृष्टि से भी उनका निदर्शन अत्युत्तम है।

मकर एवं कच्छप आरूढ देवियां कर्णकुंडल, कंठहार और साड़ी से विभूषित है। दोनो देवियां त्रिभंग मुंद्रा में है। नग्नपद, क्षीणकटि गंगा के वक्ष पर कंचुकी शोभित है। यमुना के अनावृत वक्षों पर माला झूल रही है। बाहों पर उत्तरीय लहरा रहे है। उनके हाथों में श्रीफल और फुल्लपद्म है। मस्तक के मध्य में निकाली गयी सीमांत दर्शनीय है केशों को पुष्पों से सजाया गया है। उनकी उपासिकाओ की भूषा भी दर्शनीय है।कटारमल के प्रसिद्ध सूर्यमंदिर समूह के पंचायतन मंदिरों में से एक में वे ललितासन में बैठी दिखाई गयी हैं। इस मंदिर में यमुना को प्रदर्शित नहीं किया गया है। मंदिरों की तरह नौलों के प्रवेश द्वारों में भी गंगा-यमुना अंकन यदा कदा मिलता है। नौलों के प्रवेशद्वार के निचले हिस्से में दोनों नदी देवियां विराजमान है। चम्पावत जनपद के एक हथिया नौला तथा चम्पावत के नौले में भी गंगा की प्रतिमा का उत्कीर्णन हुआ है। पिथौरागढ़ जनपद में एक ऐसा अंकन प्राप्त हुआ है जिसमें एक जल उड़ेलती हुई महिला को दिखाया गया है। परन्तु इस अंकन में मकर न होने से यह निश्चित रूप से कह पाना कठिन है कि शिल्पी ने इस अंकन में गंगा को ही निर्मित किया होगा।

यह तथ्य भी दृष्टव्य है कि मकर को गंगा का जीवरूप माना गया है । उत्तरांचल की अधिकांश जल निकासी के लिये बनायी गयी प्रणालियों में चाहें वे नौले हों,जल धारा हो अथवा मंदिर मकर मुख प्रमुखता से बनाये गये है। यह भी सम्भवतः गंगा के अंकन का ही प्रतीक है।

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