हिमवान » देवालय एवं शिल्प » उत्तरांचल के मंदिरों के प्रवेशद्वार – कला एवं परम्परा

उत्तरांचल के मंदिरों के प्रवेशद्वार – कला एवं परम्परा

भारतीय भवनों तथा देवालयों की संरचना में प्रवेश द्वार का निर्माण समूचे भवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना गया है। इसी लिए प्राचीन मंदिरों तथा भवनों की सुन्दरता में वृद्धि करने के लिए प्रवेशद्वारों को भव्य रूप देने तथा अंलंकृत करने का विधान प्रायः सभी वास्तुग्रंथों में किया गया।

उत्तरांचलीय मंदिरों में शिल्पियों ने अपनी कला दक्षता का सम्पूर्ण प्रयोग मंदिरों के शिखरों को संवारने और प्रवेशद्वारों को सजाने में किया। देवालयों के प्रवेशद्वार भी दिशा अनुसार निर्धारित किये गये। पूरब की दिशा को वास्तुग्रंथों में विशेष शुभ माना गया। प्रवेशद्वारों के निर्माण के लिए सर्वाधिक यही दिशा चुनी गयी। इसके बाद उत्तर दिशा को भी वास्तुशास्त्र में पर्याप्त महत्व दिया गया। इसीलिए अधिकांश मंदिरों के प्रवेशद्वार पूर्वाभिमुखी अथवा उत्तराभिमुखी हैं। कुछ मंदिरों में पास की बस्ती को आधार बना कर भी प्रवेशद्वारों की दिशा का निर्धारण किया गया। दक्षिण दिशा में प्रवेशद्वार के निर्माण को अल्प वरीयता दी गयी तो भी दक्षिणाभिमुखी देवालय भी मिलते अवश्य हंै। इनमें से अधिकांश शिवदेवालय हैं। परन्तु इनकी संख्या कम है। मारसोली के दो मंदिर इस सम्बन्ध में अपवाद हैं क्योंकि ये दोनो विष्णु मंदिर होने के पश्चात भी दक्षिणाभिमुखी हंै।

इस क्षेत्र के मंदिरों के प्रवेशद्वार गुप्तकला सज्जा से ओतप्रोत हंै। उनपर आकर्षक नक्काशी की गयी है। प्राचीन शिल्पग्रंथेंां में प्रवेशद्वार के निर्माण के लिए विशिष्ट नियमों का विधान किया गया। सूत्रधारमंडन, विश्वकर्मप्रकाश, संमरागण सूत्रधार, वास्तुरत्नावलि आदि में प्राचीन मंदिरों की निर्माण परम्परा एवं प्रवधियों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। इन ग्रथों में देवालय के विभिन्न अंगो के निर्माण के सम्बन्ध में भी दिशा निर्देेश दिये गये हैं। उत्तरांचल में भी शिल्पियों ने वास्तुग्रंथों में दिये गये दिशा निर्देशों का पर्याप्त पालन किया है।

शिल्प ग्रंथों में देवालयों के प्रवेशद्वार की उंचाई को साधारण विस्तार से दो गुना बनाया जाने का विधान किया गया। प्रवेशद्वार को विभिन्न अवयवों में विभक्त कर उन्हें भिन्न-भिन्न नाम दिये गये । इनको द्वारस्तम्भ, उदुम्बर, उत्तरंग तथा ललाटबिम्ब के रूप में चिन्हित किया गया। उन पर सजाये जाने वाले निश्चित अलंकरणों का निर्धारण किया गया। मंदिरों के प्रवेशद्वार के दोनों पाश्र्व स्तम्भों की सज्जा पर विशेष रूप से आकर्षक बनाने का प्रयास किया गया। इनको लम्बवत पट्टियों में विभाजित कर उन पर अलंकरण निर्धारित किये गये जबकि द्वार के उपरी भारपट्ट को भी शुभ प्रतीकों अथवा द्वार देवताओं से सज्जित किया गया। इसे उत्तरंग कहा गया तथा इसके मध्य भाग को ललाटबिम्ब नाम से सम्बोधित किया गया। वास्तु नियमानुसार मंदिर के मुख्य देवता के लघुरूप को अथवा अग्रपूज्य देवता गणेश को ही प्रायः ललाटबिम्ब में निरूपित किया गया है। देहली को उदुम्बर तथा देहली के मध्यभाग को मन्दारक कहा गया। इसे गर्भगृह के भूमितल से थोड़ा उठा कर सादा निर्मित करने की परम्परा का निर्वाह किया गया है।

गर्भगृह के प्रवेश द्वार को विभिन्न लम्बवत पट्टियो से अलंकृत करने की परम्परा गुप्तकाल से ही प्रारम्भ हो गयी थी। दर्शनीय बनाने के लिए इनकी की भूषा में नये – नये अलंकरण जोड़े गये। प्रवेशद्वार स्तम्भों को विभिन्न अलंकरणयुक्त शाखाओं, प्रतिहारी, मांग्ल्य विहग, गंगा-यमुना, श्री वृक्ष, घट, मणिबन्ध, सर्पयुवतियों आदि से सजाने के विशेष प्रयास किये गये।

वाराहमिहिर ने निर्देशित किया है कि देवालय के द्वारस्तम्भों को पांच, सात अथवा नौ शाखाओं से सज्जित कर उन्हें विभिन्न अलंकरणों से आभूषित किया जाना चाहिये। इसी के अनुरूप कुछ मदिरों को तो पूर्व मध्यकाल तक सात अथवा नौ शाखाओं से सजाया जाने का प्रचलन भी रहा। यह परम्परा 10वी शती से पूर्व तक ही अधिक विद्यमान रही । इस प्रकार के त्रिशाखायुक्त प्रवेशद्वार खंूट ग्राम के मंदिरों में विद्यमान है।
मांगलिक प्रतीकों के रूप में घट-पल्लव का अंकन गुप्तकाल के मंदिरों में प्रमुखता से हुआ। कुम्भ जल की शुद्धिकरण की शक्तियों का प्रतीक है। पर्वतीय क्षेत्र के मंदिरों में भी इस अभिपा्रय को प्रमुखता से ग्रहण किया गया। प्रमुख वास्तुग्रंथ मानसार तथा समरागंण सूत्रधार में घट-पल्लव के रूप में जल से भरे कुम्भ या घड़े को पत्तों से सजाकर स्थापित करने का निर्देश दिया गया है। इसे शुभता की प्राप्ति से जोड़ कर द्वारस्तम्भों के आभूषण के रूप में प्रमुखता से स्थान दिया गया । महारूद्रेश्वर मंदिर समूह खंूट ग्राम में उत्तरी मंदिर के गर्भगृह का प्रवेशद्वार घट-पल्लव से ही सज्जित किया गया है।

उत्तराखंड में भी गंगा-यमुना का मंदिरो के प्रवेशद्वार की भूषा के रूप में प्रचुरता से अंकन मिलता है। गंगा का प्रतिमा रूप में अंकन भी गुप्त काल में ही सर्वप्रथम प्रारम्भ हुआ माना जाता है। तब ही से गंगा-यमुना को नदी देवियों के रूप मंदिरों के प्रवेश द्वार पर अंकित करने की परम्परा भी प्रारम्भ हुई । गंगा को पवित्रता और यमुना को समर्पण के प्रतीक रूप में अंकित करने का आशय था कि मंदिरों में केवल वही प्रवेश के पात्र हैं जो पवित्र भाव तथा समर्पण की भावना से देवदर्शन के इच्छुक हंै। गंगा को मकर पर तथा यमुना को कूर्म पर पूर्णघट सहित निरूपित किया जाने लगा। मकर जल की अगाध शक्ति तथा घट मंगल का प्रतीक है जिसमें भरा पानी अमृत के समान पवित्र है।

छत्रधारिणी तथा परिचारिकाओं से सेवित मंगलघट सहित सज्जित गंगा-यमुना की प्रतिमायें अनंेक मंदिरों के प्रवेशद्वारों में मांगलिक प्रतीकों के रूप में स्थापित की गयी हंै। वे मुकुट, कर्णकंुडल, बाजूबंध तथा साड़ी से सज्जित प्रवेशद्वारों में क्रमशः बांयी और दायीं ओर स्थापित की गयी हैं। उनके छ़त्र का दंड सेवक-सेविकाऐं उठाये रहते हंै। लेकिन प्रतीत होता है कि भारतीय शिल्प कला में गंगा-यमुना का अंकन पूर्वमध्यकाल में प्रवेशद्वार स्तम्भों के शीर्ष भाग पर, मध्यकाल में निचले पाश्र्वाेे में प्रचुरता से हुआ परन्तु उत्तर मध्यकाल में पूर्णतः लुप्त हो गया। इस क्षेत्र में भी देवालयों के प्रवेशद्वारों के शीर्ष पर गंगा-यमुना का दर्शन दुर्लभ अवश्य जान पड़ता है।

कटारमल मंदिर समूह में ललितासन में बैठी गंगा देश की दुर्लभ पुरा निधि हैं। कपिलेश्वर मंदिर के द्वार स्तम्भ में भी गंगा -यमुना का सुंदर अंकन देखा जा सकता है। कपिलेश्वर महादेव मंदिर का प्रवेशद्वार पश्चिमाभिुख है। इसे पत्रशाखा, पुष्पशाखा एवं स्तम्भशाखा द्वारा सजाया गया है। एक शाखा का शीर्षभाग घटपल्लव से सज्जित है। द्वार स्तम्भ के निचले भाग में गंगा और यमुना का अंकन है। इनके पाश्र्वों में स़्त्री एवं पुरूष द्वारपाल के रूप में अंकित हैं। उत्तरंग पर नवग्रह प्रदर्शित किये गये हंै। प्रवेशद्वार के दोनों पाश्र्वो में एक-एक वलभी शैली के मंदिर दर्शाये गये है। इसी मंदिर के पास रखा प्राचीन द्वारखंड में श्री वृक्ष भी अंकित है।

प्रवेशद्वार के स्तम्भों को विभिन्न अलंकरणों से सजाने की परम्परा के अन्तरगत थल के धामी गांव के उत्तराभिमुखी हनुमान मंदिर के प्रवेशद्वार में गंगा-यमुना और सिंह का अंकन किया गया है तथा उत्तरंग पर विध्नविनाशक गणेश स्थापित है। यहां पार्वती मंदिर में उत्तरंग पर मणिबन्ध पट्टियां सजाई गयी है। जबकि चम्पावत के मजलक गांव के शिव मंदिर के ललाटबिम्ब पर पंच गणेश का अंकन हुआ है। अंकन में गणेश का केवल शिरोभाग ही प्रदर्शित है। मनटांडे के शिव मंदिर के उत्तरांग में नवगृह प्रदर्शित किये गये हैं। बाडेछीना के पास के बौणसी देवाल में प्रवेशद्वार स्तम्भों को तीन शाखाओं से अलंकृत किया गया है। जिनमें मयूर, नाग-मिथुन तथा पुष्प अंकित किये गये हैं। बमनसुआल में अंकित मयूरों के पंखों को इस प्रकार से फैला कर अंकन किया गया है कि वे सुन्दर पुष्पावलि का रूप धारण कर लेते है। नाग मिथुन शाखा के प्रदर्शन में नागों को मानवामुखी दर्शा कर अंजलिहस्त मुद्रा में बनाया गया है। इसके उत्तरंग में प्रुफुल्लित पुष्प डिजाइन है। भरसौली तथा कपिलेश्वर के शिवमंदिरों के उत्तरंग में शिवलिंग का अंकन है। बानठौक के मंदिर में सर्पयुवतियों से प्रवेशद्वार को सजाया गया है। जबकि चम्पावत के बालेश्वर मंदिर में ललाटबिम्ब को शिव की स्थापना हुई है। इनके ललाटबिम्ब पर गणेश का प्रचुरता से अंकन किया गया है। कहीं-कहीं प्रवेशद्वारों पर अभिलेख भी अंकित किये गये। जागेश्वर के महामृत्युंजय मदिर के स्तम्भ न केवल अर्धकमल लताओं आदि से अलंकृत हैं वरन उन पर अभिलेख भी उत्कीर्ण किये गये हैं। पिथौरागढ़ जनपद के दिंगास ग्राम के मंदिर में प्रवेशद्वार पर अभिलेख अंकित हैं। नारायणकाली ग्राम के शिव मंदिर के उत्तराभिमुखी प्रवेशद्वार को पत्रशाखा, नागशाखा तथा मणिबन्ध शाखा द्वारा सजाया गया है। इसके निचले पाश्र्वाेें में कलशधारिणी महिलायें प्रदर्शित की गयी हैं। जागेश्वर के नटराज मंदिर के द्वारस्तम्भ भी दर्शनीय है। उन्हें पुष्प तथा हीरक आकृतियों से मिश्रित किया गया है। पुष्पाकृतियों का ऐसा सम्मिश्रण चालुक्य मंदिरों की कला से साम्य रखता प्रतीत होता है। चम्पावत के मण गांव के सूर्य मंदिर में लघुसूर्य का अंकन ललाटबिम्ब पर किया गया है।

लेकिन उत्तरांचल में 10वी शती के पश्चात प्रवेशद्वारों की कला में हृ्रास स्पष्ट दिखाई देने लगता है। यहां उत्तर मध्यकाल में प्रवेशद्वार स्तम्भों से अलंकरण विलुप्त होने लगे। इन स्तम्भों को सादा बनाने की परम्परा प्रभावी हो गयी। केवल ललाटबिम्ब को ही अलंकरणयुक्त देव आंकृतियों से सज्जित किया जाने लगा।
भारतीय देवालयों कला एवं सज्जा परम्परा की श्रीवृद्धि करने वाले उत्तराखंड के मंदिरों में प्रवेशद्वारों का अलंकरण एवं रूप विन्यास यद्यपि गुप्तकाल की कला परम्परा से प्रभावित हैं परन्तु इनका विकास एवं सौन्दर्य अभिव्यक्ति के स्वतंत्र प्रतिमान भी विद्यमान अवश्य है जिनपर विस्तृत शोध की आवश्यकता है।

स्मारकों को बचाएं, विरासत को सहेजें
Protect your monuments, save your heritage

Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
error: Content is protected !!