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कुमाऊँ के नौलेः कला एवं परम्परा

सृष्टि में जीवन की उत्पत्ति का मूल आधार जल है। मानवीय बसासत को बस्ती का रूप देने के लिए नजदीक में जल की निरन्तर उपलब्घता एवं स्वच्छ जल का निरन्तर प्रवाहमान स्त्रोत अनिवार्य तत्व रहा। मानवीय आवास इसीलिए सबसे पहले जल के निकट ही विकसित हुए तथा जल की दुर्लभता से उपलब्धि उसके उत्स को सुऱिक्षत रखने की प्रबल आवश्यकता के रूप में सामने आयी।

जल की जीवन से अभिन्नता के कारण ही जल को जीवन, रस, ज्ञान एवं पवित्रता का प्रतीक मानकर पुष्कर, बावड़ियों, नदियों, जलाशयों की पूजा प्रारम्भ की गयी एवं जल को दैविक रूप में भी स्वीकार किया गया है तथा जल़ स्त्रोतो की प्राप्ति को देव कृपा के रूप में लिया गया। नदियों के उद्गम स्थलों पर मंदिर बनाये गये तथा जलशायी विष्णु, प्रमुख नदी देवियां गंगा-युमना और वरूण को जल देवता के रूप में स्वीकार कर देव शक्तियों के प्रति आभार प्रकट किया गया। जलाशयों के तट पर यक्षों के निवास की भी कल्पना की गयी।
उपासक की शरीर शुुद्धि तथा देवता के पूजन एवं अभिषेक के लिए भी जल आवश्यक है इसलिए देवालय भी जल स्त्रोतों के नजदीक स्थापित किये गये। यात्रा मार्गाें पर पड़ाव अथवा धर्मशालायें भी वहीं बनायी गयीं जहां जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। जल कुंड के उपर जल देवता को स्थान देने और जल को पवित्र एवं सुरक्षित रखने के लिए पक्का कुंड बनाकर उसके उपर कक्ष जैसी आकृतियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। कहीं-कहीं देवालय के साथ कुंड अथवा जलाशयों का निर्माण भी मंदिरं स्थापत्य के साथ जुड़ गये।

प्राचीन ग्रंथों अपराजितपृच्छा, मानसोल्लास आदि में भी जल वापी के निर्माण की प्रक्रिया एवं वापी के अनिवार्य लक्षण लांछनों पर विस्तृत सामग्री उपलब्ध है। मत्स्य पुराण में मयदानव द्वारा वापी के निर्माण का उल्लेख हुआ है। डा0 यशवंतसिंह कठोच ने देवालय प्रतिष्ठान के साथ वापी, कूप, कंुड या पुष्कर आदि को पौराणिक पूर्तकर्म का प्रधान अंग माना है।

गुजरात की कई मंजिल बावड़ियों के विपरीत कुमाऊँ और गढ़वाल मंडलों में जल कुंड के उपर एक मंजिल वास्तु का निर्माण प्राचीन समय से चला आ रहा है। इसके अन्तरगत सामान्यतः एक छोटा क़क्ष और बाहर दो स्तम्भां पर आधारित बारामदे का निर्माण किया गया। अधिकांक्ष नौले लघुकक्ष के रूप में निर्मित किये गये और भूषा आदि में भी सादे ही हैं। देवालयों के गर्भगृह की तरह प्रायः इन्हें गवाक्षविहीन बनाया गया है। इनमें काष्ठ प्रयोग या तो हुआ ही नहीं है अथवा अत्यल्प है। अलंकृत देवालयों की परम्परा के अनुरूप इनकों भव्य अलंकरणों से सज्जित किया गया है। मंदिरों की तरह ही नौलों में निश्चित वास्तु विधान के अन्तरगत विभिन्न अंग सज्जित किये गये हैं।

मान्यता है कि जलशायी विष्णु नारायन को जल वापी में प्रतिष्ठित किया जाना चाहिये। इसलिए विष्णु को इन नौलों में प्रचुरता से स्थापित किया गया। कक्ष के भीतर अन्य देवताओं को भी स्थान दिया गया।

कुमाऊँ मे गांव-गांव में अलंकृत नौले बनाने की स्थानीय परम्परा है। इनमें से एक हथियानौला, स्यूनराकोट का नौला, नागनौला, जाह्नवी का नौला, चम्पावत का नौला आदि प्रसिद्ध नौले हैं जो केवल अपने मीठे जल के लिए ही नहीं अपितु अपनी कलात्मक वास्तुकला के लिए भी जाने जाते हैं। पुरातत्व की दृष्टि से कैड़ागांव का नौला, देवी का नौला, नौलापाटन, मनटांडे का नौला तथा कानीकोट का नौला, कपीना अल्मोडा का नौला और सिद्धबाबा का नौला प्रसिद्ध हैं।

इन नौलों का निर्माण अत्यंत सरल परन्तु संतुलित है। वर्तमान में यह सभी नौले भूमि की उपरी सामान्य सतह से नीचे हैं। तराशे गये सुदृढ पत्थरों से निर्मित सोपानयुक्त कुंड क्रमशः नीचे से उपर की ओर अधिक विस्तृत एवं चैड़ा होता जाता है। कुंड को सोपानयुक्त सीढियो से पर्याप्त गहरा बनाया गया है।वर्गाकार अथवा आयताकार कक्ष निर्माण में केवल गर्भगृह और अर्धमंडप या सस्तम्भ मंडप की ही शैली अपनायी गयी है जिसमें कुंड के उपर साधारण कक्ष बनाकर बरामदे में प्रवेशद्वार के दोनों ओर एक-एक बड़ा पटाल लगाकर कपड़े धोने और नहाने के लिए पृथक से व्यवस्था की गयी। ढ़लवा छत को पटालों से आच्छादित किया जाता हैै। बारामदे की छत को दो अथवा चार स्तम्भों पर आधारित किया गया है। प्रवेशद्वारों के स्तम्भों को पुष्प, लताओं, मणिबन्ध शाखाओं आदि विभिन्न अलंकरणों से सज्जित किया गया । कुछ नौलों में वितान को भी सोपानयुक्त गढ़नों से कुछ उपर उठा कर तो प्रफुल्लित पद्म या फिर विभिन्न अल्ंकरणों से सज्जित किया गया है। कहीं कहीं वितान को सजाने के लिए देवाकृतियों आदि का भी प्रयोग हुआ है। चन्द्रिका से भूषित छत को प्रायः पटालों से आच्छादित किया गया है। नौलों में ललाटबिम्ब पर गणेश का अंकन प्रचुरता से हुआ है। अधिकांक्ष नौलों में कंुड की गढन वर्गाकार हैं। गवाक्षविहीन कक्ष के भीतर प्रकाश के लिए कोई अलग से व्यवस्था नही की गयी है । कहीं-कहीं वर्गाकार प्रकोष्ठ के अन्दर लधुमंदिरों की अनुकृतियां भी बनायी गयी है। सामान्यतः नौलों में कपाट की व्यवस्था नही थी अथवा अलंकरणविहीन कपाट लगाये गये थे।

जहां तक उस परम्परा का प्रश्न है जिसमें जलवापी को ढंक कर कक्ष का रूप दिया गया है वहां यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि अल्मोड़ा जनपद में इस परम्परा के उद्भव का साक्ष्य वास्तविक रूप में विद्यमान है। मंदिर परम्परा के उद्भव के स्थानीय साक्ष्यों की तरह ही नौलों की इस परम्परा के भी साक्ष्य अत्यंत सीमित अवश्य हैै तथापि चितई ग्राम में पुराने मार्ग पर एक पूर्व मध्यकालीन पुष्करणी विद्यमान है जो सम्भवतः इस क्षेत्र में आच्छादित नौले बनने की परम्परा का के प्रारम्भ होने का एकमात्र उदाहरण है। यह तो निश्चित ही है कि कुंड या पुष्करणियों के उपर ही पश्चातवर्ती संरचनायें बनने से नौलों की परम्परा का उद्भव हुआ होगा।
जल धारा को रोककर आच्छादित कुंड बनाने की मध्यकाल में व्यापक रूप से प्रचलित रही। इस परम्परा के अति प्राचीन साक्ष्य अभी नहीं मिले है। पूर्व के आच्छादित नौलों का अधिक विवरण भी प्राप्त नहीं होता है।

नौले के बाहर निर्माण वर्ष सहित निर्माता का नाम अकेले अथवा पिता सहित अंकित करने की भी परम्परा रही है। हमारे सर्वेक्षण में यह तथ्य भी प्रकाश में आया है कि मध्यकाल के नौले पर्याप्त संख्या में अभिलेख अथवा तिथियुक्त हैं। इनमें देवीधुरा के पास मनटांडे के नौले मे प्राचीन लेख उत्कीर्ण है। जिसमें तिथी 1214 शाके उत्कीर्ण है। जबकि चैसाला गांव के नौले तथा नागनौले में तिथिविहीन नागरी अभिलेख है। चम्पावत के पास देवीनौले में शाके 1363 का तिथियुक्त अभिलेख है। गंगोलीहाट के जाह्नवी नौले में अभिलेख युक्त पट्टिका लगी है जिसमें गंधविहार शब्द भी पढ़ने में आया है। अलंकृत नौलों की परम्परा के क्रम में चैसाला गांव का नौला, डंगरासेठी का नौला, नागनौला, एक हथियानौला, स्यूनराकोट का नौला चम्पावत का नौला जैसे अनेक ज्ञात अज्ञात नौले हैं जो अपनी कलात्मकता, सुघड़ता, संतुलन और स्थापत्य की दृष्टि से अनमोल धरोहर है। कुछ नौलों के सम्बन्ध में जनश्रुतियां प्रचलित हैं कि उन्हें एक रात में बनवाया गया था।

शिल्पियों का एक बड़ा वर्ग इस क्षेत्र में ऐसा था जो कुंड को आच्छादित कर नौले बनाने की तकनीकि में निष्णात था। इसीलिए कला की दृष्टि से भी सभी नौलों की संरचना, स्वरूप, आकार, प्रवधि और स्थापत्य में आश्चर्यजनक साम्य मिलता है। प्रतीत होता है कि यदि मंदिर निर्माण के लिए शिल्पियों को राज्य का संरक्षण और सहायता मिली तो नौलों केा भव्य रूप देने में स्थानीय ग्रामवासियों, थोकदारों और सामंतों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

इन नौलों की पवित्रता को अक्षुण्य रखने के लिए जल देवता के रूप में विष्णु प्रचुरता से स्थान पाये है। शेषशायी विष्णु नारायण की प्रतिमाओं को तो स्थान दिया ही गया है कुछ में विष्णु खड़ी मुद्राओं में भी हेैं। कहीं-कहीं सूर्य भी रथिकाओं में स्थापित किये गये है। कुछ नौले तो आकर्षक सूर्य प्रतिमा से सज्जित हेैं। ब्रह्मा जैसे देवता का अंकन भी अल्पसंख्या में ही सही, लेकिन दुर्लभ नहीं है। गणेश प्रचुरता से उपलब्ध हैं लेकिन शिव शायद ही कहीं उपस्थित हो। स्तम्भों पर शस्त्र लिए द्वारपाल, अश्वारोही, नृत्यांगनायें, मंगलघट, कलशधारिणी गंगा-यमुना तथा सर्प एवं पक्षी आकृतियों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है। प्रवेशद्वार के स्तम्भों को द्वारशाखाओं से भी सज्जित करने की परम्परा थी। स्यूनराकोट के नौले में वीणावादिनी सरस्वती, दशावतार तथा महाभारत के दृष्य उल्लेखनीय हंै। नौलों के अतिरिक्त जल धाराओं के अग्रमुख पर मकरमुख , सिंहमुख भी बनाये जाते हैं। कुंड के अतिरिक्त एकत्र हुए जल के लिए निकासी की व्यवस्था भी की जाती थी।

श्री प्रफुल्ल पंत ने उल्लेख किया है कि अल्मोड़ा नगर के क्रमबद्ध विकास की प्रकिया में भी पोखर तथा प्राकृतिक जल स्त्रोंतों ने महत्वपर्ण भूमिका निभाई। राजा बालो कल्याणचंद ने नैल के पोखर के पास महल का निर्माण करवाया। राजा बाजबहादुरचंद ने अपने लम्बें शासनकाल में कई नौलों को स्थापित किया। राजा उद्योतचंद ने ड्योढ़ीपोखर का निर्माण करवाया था। इन्होने बाद में खैरागढ़ विजय के पश्चात महल के साथ ही एक पोखर का भी निर्माण करवाया था। इन्होने ही सोमेश्वर महादेव का मंदिर बनवाया और इसके पास एक नौला भी बनवाया श्री पंत ने यह भी उल्लेख किया है कि पर्वतीय ग्राम एवं नगरों में नौले, धारों का निर्माण स्थानीय जनता द्वारा पूर्व में वर्ण व्यवस्था के आधार पर किया जाता था। अलग-अलग वर्ण के व्यक्तियों द्वारा अपने अपने नौले धारे बनवाये जाते थे। रजस्वला स्त्रियों के नहाने तथा मृतकों के अन्तिम कार्याे को सम्पन्न करवाने के लिए भी नौले बनवाये जाते थे।

जहां तक नौलों की रचना सामग्री का प्रश्न है यद्यनि इस सम्बन्ध में लिखित सामग्री का अभाव है तो भी इस क्षेत्र में कुछ शिल्पी इस विघा में निष्णात थे। वे किसी स्थान विशेष को देखकर, वहां उपस्थित सिमार,वनस्पतियों एवं कीटों की उपस्थिति से उस स्थान पर जल विशेष की मात्रा का ज्ञान कर लेते थे। तत्पशचात संतुष्ट होने पर तीन मीटर तक गहराई का वर्गाकार अथवा आयताकार गढ़ा खोदा जाता था। जल देव ,स्थानीय देवताओं इत्यादि के साथ विष्णु तथा पंच देवोपासना के पश्चात नौले का निर्माण प्रारम्भ किया जाता था। हाल के सौ वर्षाें में इस लेखक को कोई नया नौला बना हो ऐसा उललेख नहीं मिला है । स्थानीय सागरा पत्थरों को तराश कर उन्हें छनी राख ,रेत कुछ विशेष वनस्पतियों के मिश्रण से गौधृत अथवा मक्खन मिला कर पीसा जाता और प्रसाधित पत्थरों की सन्धियों में भरकर हल्का सूखने के लिए पहले रखा जाता तत्पशात ठोकर कर जोड़ दिया जाता था। जल संग्रहण के लिए बनाये जाने वाले कुंड में विषम संख्या में सीढ़िया बना कर उल्टे पिरामिड का आकार देने के बाद उपर की संरचनायें बनायी जाती थीं । अतिरिक्त एकत्र होने वाले जल की निकासी की भी व्यवस्था की जाती थी।पूरा नौला बनने के बाद शेषशायी विष्णु अथवा जल देवता की प्रतिष्ठा की जाती और ग्राम समाज के लिएइस जल को सुरक्षित करने के लिए देवताओं से प्रार्थना भी की जाती थीें । निश्चित ही ये नौले हमारे पूर्वजों की कलात्मक विचारशीलता का परिणाम तो हैं ही, जल के संरक्षण की महती आवश्यकता को व्यवहार में लाने का सशक्त आधार और अनमोल धरोहर भी हैं जिन्हें हम अपनी लापरवाही से क्षरण की ओर ले जा रहे है। जबकि पूरे विश्व में जल संरक्षण पर अत्यधिक जोर दिया जा रहा है हमारे पास तो अपने पूर्वजों की यह थात अभी भी मौजूद है जिसे बस जरा से प्रयास से बचाने की आवश्यकता है।

स्मारकों को बचाएं, विरासत को सहेजें
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