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अल्मोड़ा की नंदादेवी और उनकी विरासत

उत्तराखंड की देवभूमि में नंदादेवी केवल एक देवी नहीं, बल्कि समूचे उत्तरांचल की सामूहिक एकरूपता का भी एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रतीक हैं। अल्मोड़ा स्थित नंदादेवी मंदिर आज जिस श्रद्धा और सम्मान का केंद्र है, उसका इतिहास सदियों पुराना और कई सांस्कृतिक घटनाओं से जुड़ा हुआ है।

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नंदादेवी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

नंदादेवी की पूजा की परंपरा चंद राजाओं से भी पूर्व, कत्यूरी शासनकाल में भी प्रचलित थी। नवीं-दसवीं शताब्दी के अभिलेखीय प्रमाणों में “नन्दा भगवती” की स्तुति देखने को मिलती है। नंदादेवी कत्यूरी नरेशों की सम्भवतः ईष्टदेवी थीं। कत्यूरी नरेश ललितशूरदेव के ईस्वी सन 853 के ताम्रपत्र में वंश संस्थापक निंबर को नंदादेवी के चरण की शोभा से धन्य होना बताया गया है। कत्यूरी नरेश सलोणादित्य के ताम्रपत्र में भी नंदादेवी चरण कमल लक्ष्मीतीतःकहा गया है। यह प्रमाण इस बात की ओर संकेत करते हैं कि कत्यूरी शासक नंदा भगवती को अपनी आराध्य देवी मानते थे। जागेश्वर से प्राप्त एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि आठवीं सदी में नंदा भगवती के लिए धार्मिक प्राणोत्सर्ग करने वाले इस ओर आया करते थे। प्रमाण है कि तीर्थयात्री दूर-दूर से उत्तराखंड आकर नंदादेवी की उपासना किया करते थे। नंदादेवी की उपासना किसी विशेष वर्ग तक सीमित नहीं थीं, वे जन-जन की आराध्य देवी थीं।

चंद राजवंश और नंदादेवी की प्रतिष्ठा

हालांकि आज नंदादेवी को चंद राजाओं की इष्टदेवी माना जाता है, लेकिन वास्तव में यह परंपरा राजा बाज बहादुर चंद (1638–1678 ई.) के समय से प्रारंभ हुई। गढ़वाल पर बार-बार असफल आक्रमणों के बाद, बाज बहादुर चंद ने एक तांत्रिक सलाह के अनुसार प्रतिज्ञा की कि यदि वह युद्ध में विजय प्राप्त करता है, तो नंदादेवी की पूजा को अपने राज्य की राजकीय पूजा का दर्जा देगा। विजय प्राप्त होने के बाद उसने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की और तभी से नंदादेवी की पूजा सार्वजनिक उत्सव का रूप लेने लगी।

वर्तमान में अल्मोड़ा में स्थित जो मंदिर ‘नंदादेवी मंदिर’ कहलाता है, वह वास्तव में राजा उद्योत चंद (1678–1698 ई.) द्वारा बनवाया गया उद्योतचंदेश्वर मंदिर है। राजा दीपचंद के समय में उ़़द्योतचंदेश्वर मंदिर से जुड़ा एक विशाल मंडप बनाया गया । यह निर्माण दीपचंदेश्वर मंदिर कहलाया । अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल् द्वारा वर्ष 1816 में नंदादेवी की प्रतिमा को मल्ला महल से दीपचंदेश्वर मंदिर में स्थानांन्तरित किये जाने के बाद यह स्थान नंदादेवी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

नंदादेवी के विविध रूप

नंदादेवी की पूजा के स्वरूप भी विविध रहे हैं। कई मंदिरों में देवी को सिंहवाहिनी (दुर्गा) के रूप में दर्शाया गया है, जबकि कुछ में महिषासुरमर्दिनी के रूप में। यह इस बात को दर्शाता है कि नंदादेवी को दुर्गा के विभिन्न रूपों में पूजने की परंपरा रही है।अनेक साहित्यिक सन्दर्भों में उन्हे हिमालय की पुत्री पार्वती माना गया है। स्व0 शिरीष पांडे ने अपने एक लेख उल्लेख किया है कि इतिहासविद् एम0पी0 जोशी एवम् गिरजा कल्याणम् पन्त ने एक संयुक्त लेख में चन्द वंशीय राजाओं की इष्देवी ‘नील सरस्वती’ एवम् ‘श्री अनिरूद्ध स्वरस्वती’ को बताया है। मेले के अवसर पर जब पूजा की जाती है तो नन्दा भगवती का आह्नान ‘महिषासुर मर्दिनी’ के रूप में किया जाता है।

मूर्तियों का इतिहास और बदलाव

वर्तमान में अल्मोड़ा स्थित नंदादेवी मंदिर में तीन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं, लेकिन उनके स्थापना काल और इतिहास के बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। बद्रीदत्त पांडे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘कुमाऊँ का इतिहास’ में उल्लेख किया है कि चंद राजाओं द्वारा कई बार गढ़वाल से अनेक प्रतिमाऐं लाई गयी होंगी।। 1699 में गढ़वाल से लाई गई एक मूर्ति का उल्लेख मिलता है, जबकि 1766 में जगत चंद ने मूर्ति न मिलने पर नई मूर्ति बनवाई थी।

हालांकि, आज मंदिर में कोई भी मूल मूर्ति मौजूद नहीं है। स्व0 शिरीष पांडे ने यह भी उल्लेख किया है कि 1938 में राजा आनंद सिंह की मृत्यु के बाद एक मूर्ति खो गई, और 1972 में दूसरी मूर्ति चोरी हो गई। अल्मोड़ा नन्दादेवी मन्दिर में वे मूर्तियां नहीं है जिनका उल्लेख ‘‘कुमाऊॅं के इतिहास में’’ स्व0 पाण्डे ने किया है। सन् 38 तथा 72 में दो मर्तियां खोई जिनके एवज में दी नई मूर्तियां रखी गई है। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि यही वे मूर्तियाँ थीं जिनका वर्णन बद्रीदत्त पांडे ने किया है, परंतु इस बात की संभावना है कि इससे पहले भी कई मूर्तियाँ खो गई हों।

इतिहास की परतों को पलटने पर स्पष्ट होता है कि नंदादेवी उत्तराखंड की सांस्कृतिक चेतना की प्रतीक हैं, जिनकी पूजा का स्वरूप समय के साथ बदलता रहा है। अल्मोड़ा का नंदादेवी मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि सत्ता, लोकश्रद्धा और ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी स्थल है। आज जो मूर्तियाँ मंदिर में प्रतिष्ठित हैं, वे नंदादेवी के प्रति असीम श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक हैं, श्रद्धा की अनवरत परंपरा का प्रतीक हैं –एक ऐसी विरासत का प्रतीक हैं जो सदियों से संजोई जा रही है।

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