
उत्तराखंड की सुंदर पहाड़ियों में बसा कोकिला देवी कोटगाड़ी भगवती मंदिर ईश्वरीय न्याय का एक शक्तिशाली प्रतीक है। निष्पक्षता और धार्मिकता की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूजी जाने वाली भगवती मां की पूजा भक्तगण व्यक्तिगत विपत्तियों को दूर करने की प्रार्थना के साथ करते हैं। यहां भक्त अपनी आपदा-विपदा, अन्याय, असमय कष्ट के निवारण के लिये पुकार लगाते हैं, मनौती मांगते हैं, न्याय की कामना करते हैं तथा अन्याय और पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए आया करते हैं। कुमाऊं क्षेत्र के कई मंदिरों की तरह, कोटगाड़ी एक आध्यात्मिक शरणस्थली है जहां लोग न्याय की गुहार लेकर आते हैं – न केवल अपने लिए, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी। माना जाता है कि भगवती वैष्णवी के दिव्य दरबार में पांचवीं पीढ़ी तक को न्याय मिलता है।
परंपराएँ और मान्यताएँ
पुराने समय में भक्त स्वयं उपस्थित होकर अपनी समस्या को देवी के चरणों में रखते थे और अपने साथ हुए अन्याय को व्यक्त करने के लिए प्रतीकात्मक रूप से देवता के सामने मनौती मानते थे। अब कई लोग अपनी समस्याओं को पत्रों या कानूनी स्टाम्प पेपर पर लिख कर देवी को सौंपते हैं।।

मंदिर का इतिहास पुराना है। इस मंदिर की स्थापना चंद वंश के प्रतापी शासकों के समय में हुई थी। मान्यता है कि मंदिर की स्थापना स्थानीय ग्रामीणों को सपने में प्राप्त दिव्य आदेश से प्रेरित थी। मंदिर के मुख्य सेवक भंडारी ग्वाल हैं । वर्ष1998 से मंदिर पंडित जयशंकर पाठक, पंडित गंगाराम पाठक और पंडित मोतीराम पाठक के नेतृत्व में है, जिन्हें मुख्य पुजारी पंडित पीतांबर पाठक के मार्गदर्शन में नियुक्त किया गया है। उनके वंशज दैनिक अनुष्ठान और पूजा करते रहते हैं।
पूजा और अनुष्ठान

मंदिर के पुजारी गोविन्द बल्लभ पाठक बताते हैं-देवी पूजा सात्विक वैष्णव शक्ति रूप में की जाती है । भक्त देवी को खीर और प्रसाद चढ़ाते हैं । चैत्र और आश्विन महीने की अष्टमी के दौरान और भादों में ऋषि पंचमी पर प्रमुख त्योहार और मेले लगते हैं। नवरात्रि के दौरान, मुख्य मंदिर से थोड़ी दूरी पर स्थित ग्वाल और भैरव के मंदिरों में अठवार और बलि जैसे विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं।
भौगोलिक और सांस्कृतिक महत्व
मुख्य सड़क से लगभग 200 मीटर ऊपर, पांखू में स्थित, मंदिर थल की शांत घाटी में है – जो पूर्वी रामगंगा नदी के तट पर स्थित है। थल ,डीडीहाट और बेरीनाग के बीच एक जंक्शन के रूप में कार्य करता है, जहाँ से पिथौरागढ़, मुनस्यारी और बागेश्वर की ओर जाने वाली सड़कें हैं। आस-पास के क्षेत्र में समृद्ध जैव विविधता और हिमालय की विहंगम पर्वत श्रंखलायें तथा मनोहारी दृश्य हैं।
आध्यात्मिक विरासत

कोटगाड़ी मंदिर की एक आकर्षक विशेषता गर्भगृह के नीचे बहने वाली एक सतत भूमिगत धारा है। यह जल न केवल पवित्र है, बल्कि सिंचाई और पीने के लिए भी उपयोग किया जाता है और माना जाता है कि यह क्रांति नदी का उद्गम स्थल है – जिसका महत्व स्कंद पुराण के मानस खंड में वर्णित है।
मंदिर का मुख्य आकर्षण देवी का पवित्र योनि चिह्न है जो ढका रहता है। मुख्य मंदिर के साथ-साथ सूरजमल और छुरमल को समर्पित मंदिर भी हैं – यह दो भाई हैं जिन्हें जिन्हें बागदेव के रूप में पूजा जाता है। मंदिर प्रांगण में एक हवन कुंड और धूनी है, मंदिर परिसर में कुछ आवास भी बनाये गये हैं जहाँ देवी साधक रहते हैं। मंदिर परिसर में ही नाग देवता की विशाल आकृति को भी एक सुदृढ़ चट्टान पर निर्मित किया गया है। मंदिर परिसर में अनुष्ठान स्थल के पास जलता हुआ दीपक लेकर खड़ी दो धातु निर्मित स्त्री प्रतिमाऐं भी दर्शनीय हैं। इन्हें किसी भक्त ने मंदिर में स्थापित करवाया है।

ग्रामीण सुरक्षा के लिए जंगल चढ़ाते हैं
स्थानीय ग्रामीणों के बीच एक उल्लेखनीय परंपरा कोटगाड़ी देवी को जंगल चढ़ाना है। ऐसा माना जाता है कि देवी इन वनों को कटाई और क्षरण से बचाती हैं। यह आध्यात्मिक समझ न केवल गहरी पारिस्थितिक जागरूकता को दर्शाता है बल्कि लोगों और प्रकृति के बीच पवित्र संबंध को भी मजबूत करता है।

एक मंदिर जो दूर से पुकार सुनता है
आधुनिक युग में भी, कोटगाड़ी माँ में भक्तों की असीम आस्था और विश्वास है। भक्त डाक से अपनी याचिकाएँ भेजते हैं, यह विश्वास करते हुए कि देवी उनकी प्रार्थनाएँ दूर से भी सुनती हैं। जबकि पूरे साल पूरे भारत से भक्त आते हैं, सबसे भव्य उत्सव चैत्र नवरात्रि और दशहरा के दौरान होता है, जिसमें न्याय की देवी के प्रति श्रद्धा रखने के लिए बड़ी भीड़ उमड़ती है।
