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दशहरा महोत्सव अल्मोड़ा

अल्मोड़ा अत्यंत सुन्दर व सुरम्य पर्वतीय स्थलों में से एक है। यदि एक बार अल्मोड़ा के आसपास की नैसर्गिक सुन्दरता एवं दशहरा महोत्सव को देख लिया तो निश्चित ही मन बार-बार यहाँ आने के लिए प्रयत्न करेगा ।

कार्तिक मास में मनाये जाने वाले दशहरा समारोहों में देश भर में बुराई के प्रतीक राक्षस परिवारों के पुतलों का दहन किया जाता है। लेकिन कुमाऊँ के सांस्कृतिक केन्द्र अल्मोड़ा में मनाया जाने वाला दशहरा महोत्सव रामकथा के रसिकों को कल्पना के आलोक की सैर करवा देता है मानों इन पात्रों की जीवन यात्रा उनके सम्मुख ही घट रही हो । दशहरे के दिन रंग-बिरंगे पुतलों के सम्मुख खड़ा दर्शक अपने को वर्तमान से कहीं दूर अतीत में घटनाचक्र के नजदीक पाता है।t

हिमांशु साह

अल्मोड़ा का दशहरा महोत्सव भी साम्प्रदायिक सौहार्द की ही एक अनुभूति है। पुतलों के निर्माण में शौकिया कलाकारों की कल्पना और सृजनशीलता ने इन पुतलों को प्रतीक भर ही नहीं रहने दिया है वरन रामकथा के प्रस्तुतकर्ताओं की वैचारिकता को गढ़ने का सफल प्रयास किया है। रामकथा के खलनायकों को जीवन्त रूप में इस प्रकार से गढ़ दिया जाता है कि थोड़ी सी विषयवस्तु के आधार पर तैयार भावभंगिमा और अलंकरण से सुसज्जित पुतला अपनी पात्रगत विशेषता के अनुसार मूक सम्प्रेषण दे सके ।

यूँ तो अल्मोड़ा में राक्षस परिवार के पुतले देश के अन्य भागों की तरह ही बनाये जाते हैं लेकिन अन्य स्थानों की अपेक्षा यहाँ के पुतले कलात्मकता और भव्यता के साथ उन कलाकारों के द्वारा निर्मित होते हैं जो किसी भी तरह से पेशेवर नहीं हैं। यह कलाकार हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई अथवा किसी भी धर्म अथवा सम्प्रदाय के हो सकते हैं। साथ ही सम्भवतः दशहरे के अतिरिक्त कभी ही कोई पुतला बनाते हों लेकिन जब दशहरे में पुतला निर्माण की कला को प्रदर्शित करते हैं तो लोग आश्चर्य से अंगुली दबा जाते हैं। जैसा शरीर सौष्ठव, रूप विन्यास, कलासज्जा, शारीरिक मुद्रायें इन पुतलों में प्रदर्शित होती हैं, अन्य जगहों पर दुर्लभ हैं। दशहरे के दिन इन पुतलों का जलूस ही निकलता है।

नीरज अग्रवाल

जहां तक अल्मोड़ा दशहरा महोत्सव के आयोजन के इतिहास का प्रश्न है इतिहासकार बताते हैं कि चंद शासको के समय में मल्ला महल में दशहरा पर्व के रूप में मनाये जाने का उल्लेख मिलता है। वर्ष 1697 में चंद शासक उद्योत चंद ने दशहरा का छाजा अपने महल में आयोजित किया था। इसमें रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किये गये थे। लेकिन माना जाता है कि दशहरा पर्व को सामूहिक रूप से मनाये जाने की शुरूवात वर्ष 1860 से हुई जब से अल्मोड़ा में रामलीला का आयोजन प्रारम्भ हुआ ।

नीरज अग्रवाल

प्रारम्भ में दशहरा पर्व पर रामजलूस का आयोजन किया जाता था तब यहां रावण का एकमात्र पुतला बनता था जिसे लोक कलाकार स्व0 अमरनाथ वर्मा बनाया करते थे। वर्ष 1975 तक यह एकमात्र पुतला था। इसकी उंचाई तब 30-40 फुट तक हो जाती थी। इस पुतले को नगर भ्रमण के उपरांत बद्रेश्वर में जलाया जाता था। वर्ष 1976 में मल्ली बाजार में अख्तर भारती ने मेघनाद का आकर्षक पुतला बना कर एक नये रूप में दशहरा पर्व की नींव डाली तब स्व0 अमर नाथ वर्मा को दशहरे का संयोजक बनाकर दशहरा पर्व को सामूहिक आयोजन का पर्व बनाने का पहला प्रयास हुआ। इस वर्ष रावण और मेघनाद के दोनों पुतलों का साथ साथ नगर भ्रमण करवाया गया। वर्ष 1977 में पहली बार कुम्भकर्ण का पुतला जौहरी बाजार में बनाया गया। इसके बाद श्री लक्ष्मी भंडार ने ताडि़का का पुतला बनाया जिसे राजेन्द्र बोरा ने निर्मित किया था। इसमें पराल की जगह लोहे के तार का ढांचा प्रयोग किया गया। वर्ष 1982 तक आते आते पुतलों की संख्या एक दर्जन हो गई। वर्तमान में तो लगभग 2 दर्जन पुतले बनाये जाते हैं।

दुर्गा प्रतिमा निर्माण और पूजन की शुरूवात गंगेाला मोहल्ला से हुई जिसके बाद लाला बाजार और राजपुर के निवासियों ने प्रतिमा बनायीं। अब तो अनेक स्थानों में दुर्गा प्रतिमाओं का निर्माण एवं पूजन होता है।

अल्मोड़ा दशहरा पर्व अब लोकानुरंजन का महत्वपूर्ण अवसर बन गया है जिसे आधुनिक रूप में स्थापित करने में अनेक कलाकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और संस्कृति प्रेमियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस पर्व को विकसित करने में स्व0 हरीश जोशी एडवोकेट का योगदान भी हमेशा याद किया जायेगा जिन्होंने दशहरा महोत्सव समिति के संयोजक के रूप में अथक परिश्रम कर अल्मोड़ा दशहरा पर्व को नगर निवासियों की कलात्मकता और सामूहिकता का प्रतिफल बना देश- विदेश में चर्चित कर दिया।

हिमांशु साह

अल्मोड़ा में दशहरा महोत्सव की तैयारी एक माह पहले से ही हो जाती है। मोहल्ले-मोहल्ले में रावण परिवार के पुतलों के निर्माण के लिए युवा सक्रिय हो जाते हैं। अब तो स्थान-स्थान पर पुतला निर्माण कमेटियां बन गयी हैं। पुतले बांस की खपच्चियों से तैयार नहीं किये जाते। यहाँ ऐंगिल आयरन के फ्रेम पर पुतलों का निर्माण होता है। पुतलों में पराल भरकर उन्हे बोरे से सिलकर तथा उसपर कपड़े से मनोनुकूल आकृति दी जाती है। चेहरा प्लास्टर आफ पेरिस का भी बनाया जाता है।

इन पुतलों की नयनाभिराम छवि, आँख, नाक तथा विशिष्ट अवयवों को अनुपात देने में यहाँ के शिल्पी अपनी समस्त कला झोंक देते हैं। इन शिल्पियों का हस्तलाघव, कल्पनाशीलता, कौशल देखते ही बनता है। पूरा धड़ एक साथ बनाया जाता है, केवल चेहरा अलग से तैयार किया जाता है। प्रत्येक पुतले में उसकी भाव भंगिमा और मुद्राओं को सूक्ष्मतम रूप में प्रस्फुटित किया जाता है। इन सबके बाद शुरू होता है पुतले का अलंकरण ।अल्मूनियम की पन्नियों, चमकदार कागज से किरीट, कुंडल, माला, कवच, बाजूबन्ध तथा विभिन्नं आयुध बनाये जाते हैं।

त्रिलोचन जोशी

दशहरे के दिन दोपहर से यह पुतले अपने निर्माण स्थल से निकलते हैं। तब इनकी सज्जा देखते ही बनती है। पुतलों की सामूहिक यात्रा टैक्सी स्टैंड के पास से एक जलूस के रूप में प्रारम्भ होती है। इन पुतलों में रावण, मेघनाद, कुम्भकर्ण, ताड़िका, सुबाहु, त्रिशरा, अक्षयकुमार, मकराक्ष, खरदूषण, नौरान्तक आदि के पुतले शोख रंगों से संवारे जाने से अनोखी आभा लिए हुए होते हैं। इनके साथ-साथ पुतला निर्माण समितियों के लोग भी चलते हैं।

जूलूस को क्योंकि अपने गन्तव्य पर पहुँचते-पहुँचते काफी रात हो जाती है इसलिए प्रकाश की भी समुचित व्यवस्था की जाती है। बाल कलाकार भी इस जूलूस में अपनी कला का प्रदर्शन करते है। दशहरे के ही दिन विजयदायनी देवी दुर्गा की प्रतिमाएँ मुहल्ले मुहल्ले के निवासी शोभा यात्रा हेतु लातें है। भजन कीर्तन के मध्य माँ दुर्गा की प्रतिमाएँ विसर्जन के लिए क्वारब ले जायी जाती हैं जहाँ कोसी और सुआल नदियों के संगम पर प्रतिष्ठापूर्वक उनका विसर्जन किया जाता है।

दशहरे की शाम अल्मोड़ा में देखते ही बनती है। विद्युत की सजावट से सारा शहर दिपदिप करता है। एक माह से चली आ रही गतिविधियों के यह उत्कर्ष का दिन होता है जिसका आनंद यहाँ आये देश-विदेश के पर्यटक देर रात तक लेते हैं। समूचा अल्मोड़ा इस अवसर पर एक उल्लास में डूबा होता है।

इस उत्सव की एक विशेषता यह भी है कि हर मुहल्ले के लोग जलूस के रूप में अपने-अपने पुतले लेकर आते हैं, इसलिए जितनी सक्रिय भागीदारी पूरे नगरवासियों की इस उत्सव में होती है अन्य किसी भी उत्सव में शायद ही कहीं होती हो। स्व0 अमरनाथ वर्मा द्वारा बनाये जाने वाले रावण के पुतले के बाद अख्तर भारती जैसे कलाकारों ने मेघनाद के पुतले से इस उत्सव को जो दिशा तथा हरीश जोशी ने जो सामूहिकता दी उसी का परिणाम आज बनने वाले 2 दर्जन से ज्यादा पुतलों का जलूस है।

पिछले कुछ वर्षों में स्थानीय जनता के प्रयासों से यह महोत्सव लोकानुरंजन का महत्वपूर्ण अवसर बन गया है।

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