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शिल्प में पार्वती

कुमाउ मंडल से प्राप्त शाक्त प्रतिमाओं में देवी पार्वती की सर्वाधिक प्रतिमायें प्राप्त होती हैं ।बाल्यावस्था में इनका नाम गौरी था जब ये विवाह योग्य हुईं तो इन्होंने शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिये घोर तपस्या की। तपस्यारत देवी पार्वती कहलाने लगीं । शिव से विवाह हो जाने के उपरान्त इन्हें उमा के नाम सेपुकारा जाने लगा । प्राप्त प्रतिमाओं में तीनो रुपों में देवी का दर्शनीय अंकन प्राप्त होता है ।

Himvan

मार्कण्डेय पुराण के अनुसार गौरी की प्रतिमा द्विभुजी अथवा चतुर्भुजी होनी चाहिये । द्विहस्ता देवी का दायाँ हाथ अभय मुद्रा तथा बायें हाथ में जलपात्र (कमण्डल) बनाने का विधान है । चतुुर्भुजी गौरी के हाथों में अक्षमाल, पद्म तथा कमण्डल के साथ दक्षिण अधोहस्त अभय मुद्रा में होना चाहिये । पार्वती के बाये हाथों में अक्षमाला, कमण्डलु एवं दायें हाथ अभय तथा वरद मुद्रा में होने चाहिए । सुंदर केशविन्यास, वस्त्र, सर्वालंकारों से भूषित शिव के साथ द्विभुजी तथा स्वतन्त्र रुप में चतुर्भुजी उमा की प्रतिमायें प्राप्त होती हैं। इनके हाथों में प्रायः अक्षमाला, दर्पण, पद्म तथा जलपात्र होता है ।

हाल ही में इस क्षेत्र से देवी पार्वती की एक अति सुन्दर मूर्ति प्राप्त हुई है। प्रतिमा विज्ञान के मानदंडों के अनुसार यह गौरी की प्रतिमा है । द्विभुजी देवी की मूर्ति हरे रग के प्रस्तर में बनाईं गई है । पुष्प कंडल, कंठहार, स्तनसूत्र, केयूर, कंकण, आपादवृत साड़ी, नुपुर आदि आभूषणों से अलंकृत देवी के अभय मुद्रा में उठे दायें हस्त मे अक्षमाला शोभित है। बायें हाथ में जलपात्र
(कमण्डलु) धारण किये हुये हैं । शीर्ष पर जटामकुट से निकली अलकावलि दोनों कन्धों को स्पर्श कर रही हैं। साड़ी पर अति सुन्दर बेलबूटे बने हैं जो देवी की कमर के कटिसूत्र से आवेष्टित हैं । बेलबूटेदार उत्तरीय कंधों को आवृत करता हुआ दोनों बाहों पर लहरा रहा है । गोरी के दोनों पाश्र्वाें में में एक -एक कदली वृक्ष निरूपित किया गया हैं। शैली एवं प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से गौरी की उक्त प्रतिमा लगभग आठवीं -नवीं शती ई. की प्रतीत होती है ।

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मध्यकाल से पार्वती की अनेक स्वतन्त्र प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जिनमें जटा मुकुट तथा सर्वालंकारों से अलंकृत देवी की पीठिका पर गोधिका अंकित है। पार्वती की उक्त प्रतिमायें लगाया नवीं शती ई. से बारहवीं शती ई. तक प्रचुर मात्रा में निर्मित हुई हैं । इनमें अल्मोड़ा तथा चमोली जिले से प्राप्त पार्वती की प्रतिमायें कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण उदाहरण हैं । गढ़वाल एव कुमाऊँ से प्राप्त लगभग 9वीं शती की द्विभुजी पार्वती भी विशेष उल्लेखनीय हैं ।

चम्पावत से प्राप्त द्विभुजी पार्वती को समपाद मुद्रा से स्थानक खड़ा दर्शाया गया है। देवी के वाम अधोहस्त में अग्निपात्र तथा दक्षिण अधोहस्त वरद मुद्रा में दर्शाया गया है, उनके दक्षिण उर्ध्व हस्त में दर्पण है । पाश्र्वाें में दो परिचारिकाओं सहित व्याल भी अंकित किये गये हैं। ऊपरी भाग में मालाधर अंकित हैं । पैरों तक धोती से आवृत देवी जटा मुकुट, सर्वालंकारों से भूषित हैं। देवी के वाहन रुप में गोधिका अंकित है ।

एक अन्य शिव मंदिर में स्थापित देवालय में पार्वती की एक सुन्दर प्रतिमा है । देवी का दायाँ हाथ वरद मुद्रा में उनके दायें घुटने पर आधारित है । ललितानस्थ देवी के अधो वाम हस्त में कमण्डलु, अधो दक्षिण हस्त वरद मुद्रा तथा दोनो ऊपरी हाथों में अग्निपात्र हैं । शीर्ष जटा मुकुट से अलंकृत है। कानों में पुष्प कंुडल, गले में मोतियों का हार, कंठहार, वक्ष पर दो लडि़यों का हार, कमर में मेखला, घुटनों से ऊपर मोतियों की मालायें हैं। उनके दायें पैर की ओर उनका वाहन सिंह तथा बायीं ओर मृग स्थापित किया गया है ।

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कत्यूर घाटी से भी पार्वती की पूर्व मध्य कालीन एक प्रतिमा प्रकाश में आयी है जिसके बायीं ओर मृग तथा दायी ओर सिंह बैठा है। बागनाथ के ऐतिहासिक मंदिर से द्विहस्ता, स्थानक पार्वती की तीन प्रतिमायें प्रकाश से आ चुकी हैं ।

लेकिन देवी का सर्वाधिक सुन्दर निदर्शन बैजनाथ से प्राप्त मध्यकालीन पार्वती प्रतिमा में हुआ है। इस प्रतिमा में चतुर्भुजी देवी को स्थानक समपाद मुद्रा में दिखाया गया है । उनका दायाँ हाथ वरद मुद्रा, बायाँ अधो हस्त जलपात्र, दाहिना उर्ध्व हस्त शिव व अक्षमाला से सुशोभित है । वाम उर्ध्व हस्त में गणेश हैं। जटामुकुट से देवी सुशोभित हैं । स्तनसूत्र, हार, एकावलि, मेखला, बाजूबन्ध से मंडित देवी पद्मपीठ पर खड़ी हैं। उनके पैर धोती से आवृत तथा घुटनों तक आभूषण दर्शाये गये हैं। अधो पाश्र्वाें में दो-दो उपासिकायें हैं। प्रतिमा का परिकर भी अलंकृत है । ऊपरी पार्श्व में गणेश का भी अंकन हुआ है ।

देवी उमा- महेश तथा पार्वती की स्वतंत्र प्रतिमाओं के अतिरिक्त भी वे शिव परिवार के साथ मिलती हैं। पार्वती प्रतिमा निर्माण की परम्परा प्राचीन काल से लगाया १५र्वी शती तक अत्यधिक पल्लवित हुई । पूर्व काल में नाभि छन्दक उनका प्रिय एवं प्रमुख आभूषण रहा जबकि उत्तर मध्य काल की प्रतिमाओ में मुक्तावलियों से युक्त आभूषण अधिक प्रचलित हुए लेकिन पश्चातवर्ती प्रतिमाओं की गढ़न ज्यादा स्थूल हो गई।

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