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उत्तराखंड के पुरातत्व की गौरव गाथा

मनीषियों द्वारा प्रतिपादित हिमालय के पांच भागों नेपाल, कूर्मांचल, केदार, जलंधर तथा कश्मीर में से दो केदार तथा कूर्मांचल को मिलाकर ही वर्तमान का उत्तरांचल राज्य बना है। पी0 बैरन ने वांडरिंग्स इन द हिमाल में इस पर्वतीय क्षेत्र को हिन्दुओं का यरूशलम तथा पैलेस्टाइन माना है।

उत्तराखंड भौगोलिक दृष्टि से तराई भाबर से लेकर चीन व तिब्बत की सीमा तक तथा पश्चिम में टौंस यमुना से लेकर काली शारदा नदियों तक दुर्गम उंचाइयों को लांघते बुग्यालों और हिमशिखरों के जादुई संसार तक न केवल अपनी सीमा रेखाओं का विस्तार करता है अपितु सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी प्राचीन समय से ही एक इकाई के रूप मान्य रहा है।

इस क्षेत्र का वर्णन वैदिक ग्रंथों में उपलब्ध है। वैदिक काल में इस भू भाग को हेमवत, हिमवंत नाम दिया गया था। उत्तर कुरू के रूप मे भी इस क्षेत्र की पहचान विद्वानों ने की है। हिमालय तथा उत्तरकुरू के सम्बन्ध में अनेक उद्धरण युजुर्वेद में प्राप्त हेाते हैं। महाभारत तथा रामायण में भी उत्तर कुरू का उल्लेख हैं। यह क्षेत्र किरात नाग,खस हूण तथा शक जाति का निवास रहा है। उत्तर गुप्तकाल में जिस समय उत्तरांचल में पौरव राज्य वंश शासन कर रहा था तब इस क्षेत्र में हूण भी निवास कर रहे थे। उत्तरकाशी के पास कुराली नामक ग्राम में हूण देवता का मंदिर है। वैदिक आर्यों से पूर्व ही खस इस ओर आकर बस चुके थे। किरात मंडल, उत्तरापथ का नाम भी इसी अंचल को दिया गया था। रामायण काल में यह क्षेत्र उत्तर कौशल कहा जाता था। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति लेख में कर्तपुर का उल्लेख मिलता है।

महाभारत में उल्लेख मिलता है कि उस युद्ध में पर्वतीय क्षेत्र के अश्मयुद्ध विशारद योद्धाओं ने भाग लिया था। पांडु के हिमवत पाश्र्व में आने का उल्लेख भी मिलता है। थापली तथा पुरोला के अवशेषों को विद्वान महाभारत कालीन सभ्यता के अवशेष मानते हैं। वैसे थापली के उत्खनन द्वारा धूसर मृदभांड संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां से तांबे की चूडियां, अंजन शलाकायें तथा पकी मिट्टी की पक्षी आकृति प्राप्त हुई है। पुरोला के अवशेष भी इसी धूसर मृदभांड संस्कृति के अवशेष हैं । कुछ विद्वानों का मानना है कि परवर्तीकाल में खषों ने कार्तिकेयपुर(बैजनाथ ) तंगणो ने टंकणपुर (चमोली जनपद) तथा कुणिन्दों ने स्त्रुध्न(कालसी के पास) नामक नगरों को मिलाकर दीर्घकाल तक वार्ताशस़्त्रोपजीवी संघ नामक सद्भाव व्यवस्था कायम की थी। बाद के वर्षां में नदियों की बाढ, जलप्लावन के कारण टंकणपुर और स्त्रुध्न के अवशेष समाप्त हो गये। बैजनाथ के पास कार्तिकेयपुर के अवशेष अवश्य थेाड़े बहुत विद्यमान हैं।

डा0 मदनचन्द्र भट्ट ने उल्लेख किया है कि ‘पंवार राजवंशों के शासनादेशों पर अंकित बदरीनाथो विजयते दिग्विजयी सर्वदा के उल्लेख हैं। ऐसे शासनादेश चन्द्रबदनी, कोटवाड़ा, पीपलकोटी आदि से वृहद संख्या में मिले हैं । इन राजमुद्राओं का कथन सिद्ध करता है कि हिमालय से समुद्र तक की विस्तृत भूमि चक्रवर्ती क्षेत्र मानी जाती थी तथा भारत का चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए विजय यात्रा के अंत में बद्रीनाथ दर्शन अनिवार्य था। अशोकचल्ल की गोपेश्वर प्रशस्ति में भी कृत्वां दिग्विजय से यह प्रतीत होता है कि अशोकचल्ल अपनी दिग्विजय के समय बद्रीनाथ में उपस्थित था’।

उत्तरांचल के पर्वतीय क्षेत्र की दुर्गम स्थितियों के कारण तक इस क्षेत्र की अधिकांक्ष पुरासम्पदा सम्बन्धी साहित्य अप्रकाशित है।
कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर ऐसे अभिलेख मिले हैं जो तीर्थयात्रि़यों द्वारा अंकित कराये गये थे। गोपेश्वर मंदिर का त्रिशूल लेख,, कल्याणवर्मा का पलेठी लेख, ईश्वरवर्मा का लाखामंडल अभिलेख तथा कुमाऊँ में जागेश्वर के अनेक अभिलेख तीर्थ यात्रियों द्वारा उत्कीर्ण किये गये है। देवप्रयाग के लेखों को भी यात्री लेख ही माना गया है जो ब्रदी विशाल का दर्शन करने वाले तीर्थ यात्रियों द्वारा अंकित किये गये थे। इनकी संख्या लगभग चालीस है। गणपित नाग का गोपेश्वर त्रिशूल लेख शिव मंदिर के सामने है । यह लेख लगभग सातवीं शती का है। अभिलेख की भाषा संस्कृत है। इसमें उसके कुछ पूर्वजों का नाम दिया गया है। अधिकांक्ष लेख अपठनीय है। पलेठी लेखों की संख्या दो है । उन्नीस और इक्कीस पक्तियों के यह लेख सूर्य मंदिर के पास के शिलापट्टों पर उत्कीर्ण हैं। इनमें से एक में लेखक का नाम भी उत्कीर्ण है। अल्मोड़ा के पास कसारदेवी शिलालेख किसी रूद्रक के पुत्र वेतला द्वारा महादेव मंदिर की स्थापना की पुष्टि का अभिलेख है जो लगभग 6टी शती ई0 में लिखा गया। ताम्रपत्रों मे पांडुकेश्वर और कण्डारा के अभिलेख चर्चित रहे हैं। बाद में अनेक कत्यूरी और चंद राजाओं तथा पंवारों ने भी ताम्रपत्रों पर शासनादेश तथा सनदे जारी कीं ।

देहरादून के पास कालसी में अशोक के ब्राह्मी लिपि में चैदह अभिलेखों से युक्त एक शिला विद्यमान है। इस शिला के पास ही गज की एक आकृति भी उत्कीर्ण है। सम्भवतः कालसी तक ही अशोक के राज्य की सीमा थी तथा उसके बाद कुणिन्दों का राज्य प्रारम्भ हो जाता था। द्रोण के बा्रह्मणों ने गौतम बुद्ध के भस्मावेशेषों का एक भाग प्राप्त कर उनकी स्मृति में स्तूप का निर्माण करवाया। इस स्तूप का जहां निर्माण हुआ वह स्थान सम्भवतः देहरादून के नजदीक का कालसी ही था। गढ़वाल विश्वविद्याालय ने मोरध्वज से मौर्यकालीन अवशेष प्राप्त किये हैं । ह्वेन्साग ने तो मौर्यो का मयूर नगर मोरध्वज को ही माना है। टिहरी के पास राणाीहाट से मौर्यकालीन बस्ती का पता चला है। मौर्यकालीन अवशेषों के अतिरिक्त उत्तरांचल के अनेक भागों से शंगकालीन अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। कुषाणकालीन स्चर्ण मुद्रायें मिलने की सूचनाये भी हैं। उत्तरकाशी जनपद के पुरोला नामक स्थान पर इष्टिका वेदी उत्तराखंड के पुरातत्व के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इस वेदी की उपस्थिति से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि प्रथम अथवा द्वितीय शताब्दी में किसी कुणिन्द राजा ने यहां पर अश्वमेध अथवा अग्निनयन यज्ञ करवाया था। डा0 यशवंत सिंह कठोच ने तो इन चितियों को भारत में धार्मिक वास्तु अथवा प्रासाद निर्माण परम्परा का प्रारम्भ माना है।

उत्तराखंड के पुरातत्व की सिलसिलेवार कहानी हेनवुड द्वारा देवीधुरा के पास स्थित महापाषाण पुरावशेषों की खोज से प्रारम्भ होती है। इसके पश्चात हरिद्वार के पास बहिदराबाद में नहर खोदते समय ताम्र उपकरण प्राप्त हुए। इन्हीं के साथ मृद्भांड भी मिले थे। बाद के उत्खनन में इस स्थान से पाषाण उपकरण के साथ ही लाल गेरूये मृदभांड भी प्राप्त हुए जिसे पुराविदों ने उत्तरपाषाण कालीन अथवा ताम्रयुगीन बस्ती के अवशेष माना। बाद के वर्षों में गढ़वाल विश्वविद्यालय द्वारा अलकनंदा घाटी से अन्य पाषाणकालीन उपकरणों की खोज का भी दावा किया गया। अल्मोड़ा जनपद की पश्चिमी रामगंगाघाटी तथा नैनीताल जनपद के खुटानी नाले से पूर्व पुरापाषाणकालीन उपकरण मिलने की जानकारी डा0 यशोधर मठपाल ने दी है।

1968 में इस क्षेत्र में अल्मोड़ा से लगभग 12 किमी की दूरी पर लखुडियार नामक स्थान पर खोजे गये शैलाश्रय पर उत्कीर्ण प्रागैतिहासिक शिलाचित्रों ने पर्वतीय क्षेत्र में पुरातत्व की नयी कहानी की रचना की। चित्रण का मुख्य विषय समूह में नृत्य करना है। कुछ पशु आकृतियों भी इनमें चित्रित की गयी हैं। डा0 डी0 पी0 अग्रवाल ने इन शिलाचित्रों को पुरापाषाणकाल से नवपाषाणकाल के बीच की धरोहर माना है। इससे पूर्व बहिदराबाद के पाषाण और ताम्रयुगीन उपकरण एवं चमोली जनपद के मलारी के मृुभांड इस कहानी को पुष्ट कर रहे थे कि पाषाणकालीन मानव ने इस क्षेत्र में अपनी बसासत के प्रमाण देने प्रारम्भ कर दिये थे।

कुमाऊं में लखुडियार के बाद फलसीमा कसारदेवी , कफ्फरकोट ,फड़कानौली, हटवालघोड़ा तथा गढ़वाल के किलनी तथा डंग्री गांव के ग्वरख्या उडियार से प्राप्त प्रागैतिहासिक पाषाण चित्रों की उपस्थिति ने यह प्रमाणित किया कि इस क्षेत्र के इतिहास के सूत्र प्रागैतिहासिक युग तक जाते हैं।

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एच0आर0 कार्नक ने अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट के पास से शैल आकृतियों की जिस श्रंखला को ढंूढ़ा बाद में उसी श्रंखला की कडि़यां आगे तक मिलती चली गयी । चन्द्रेश्वर मंदिर के पास उन्होंने एक चट्टान पर अलग अलग आकार के लगभग 200 कपमाकर््स देखे थे। ये कपमाक्र्स समानान्तर पंक्तियोंमें थे। बाद में रामगंगाघाटी तथा नौगांव में भी ऐसे कपमाक्र्स देखने में आये। बाद में महापाषाण समाधियों के मिलने का क्रम प्रारम्भ हुआ । कुछ विद्वान इन्हें पूजा वास्तु का रूप मानते हैं। अनेक विद्वान कुमाऊं में महाश्म परंपरा की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं। डा शिवप्रसाद डबराल ने गढ़वाल के मलारी गांव मे अनेक शवाधानों का पता लगाया था। मलारी में चूने के पहाड़ को गहरा खोद कर मृतक शरीर को समाधिस्थ करने की प्रथा थी।यहां एक घोड़े के शव का कंकाल भी मिला है । बाद में भी अनेक स्थानों से महापाषाण समाधियां प्राप्त होती गयी। इनमें मानव, अश्व ,मेढ़ों के कंकाल के साथ मिट्टी की बनी तश्तरी,टोंटी आदि प्राप्त र्हुइं। मलारी में लौेह फलक की भी प्राप्ति हुई सम्भवतः यह तत्कालीन समाज में आखेट के लोकप्रिय होने का सूचक रहा होगा। डा0 यशोधर मठपाल ने नौला जैनल गांवों से शवाधानों की जानकारियां भी प्रकाशित की है जिनमें कटोरीनुमा मिट्टी का बर्तन,टोटंीदार लोटे तथा मनके इत्यादि रखे हुए हैं।

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कुमाऊं में ताम्रयुगीन सभ्यता भी निरी कोरी कल्पना नहीं रही। वर्ष 1986 में इस लेखक ने हल्द्वानी में ताम्रयुगीन मानवाकृति का पता लगाकर पर्वतीय क्षेत्र में समृद्ध ताम्र संस्कृति की अवधारणा को पुष्ट किया। यह आकृति गंगाघाटी से मिलने वाली ताम्रसंस्कृति के अवशेषों जैसी ही थी। बाद में डा0 एम पी जोशी ने बनकोट पिथैारागढ़ से ऐसी 8 और ताम्रमानवाकृतियां ढं़ूढकर ताम्रसंस्कृति की अवधारणा पर पुष्टि की मोहर ही लगा दी। बनकोट की ताम्रमानवाकृतियों ने इस धारणा को भी बल दिया कि ईसा पूर्व की द्वितीय शती में पर्वतीय लोग ताम्रअयस्कों की निष्कर्षण तकनीक में भी प्रवीण हो चुके थे।

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देहरादून के पास कालसी से अशोक के शिला लेखों की प्राप्ति बाद के समय में एक और महत्वपूर्ण घटना रही। 1976 और 1979 में मोरध्वज और राणीहाट के उत्खनन किये गये। इन उत्खननों से मौर्य और शंुग कालीन सभ्यता के अज्ञात पृष्ठ प्रकाश में आये जिसका समय 600 से 400 ईपू निर्धारित किया गया। मोरध्वज में प्राचीन दुर्ग का अनिवार्य लक्षण रक्षा प्राचीर भी प्राप्त हुई। पकीं हुई इंटे, मृण्मूर्तियां, मनके , ताम्रचूडियां भी इन स्थानों से प्राप्त हुईं। मोरध्वज दुर्ग के पास ही शीगरी के बौद्ध स्तूप से बौद्ध मृण्मूर्तियंा भी प्राप्त हुईं थीं। इसी क्रम में काशीपुर से गोविषाण राज्य होने की पुष्टि के क्रम में शंुगकालीन अवशेषों की प्राप्ति हुईं । काशीपुर के टीले की खोज सर्वप्रथम कनिंघम ने की। यहां के उत्खनन में भवनों के अनेक अवशेष प्राप्त होने के साथ साथ पांचवीं शती के एक मंदिर के अवशेष भी प्राप्त हुए। इस मंदिर का 350 ई0 में पुर्ननिर्माण भी करवाया गया था। इस टीले से उत्तर कुषाण कालीन शासकों की तीन स्वर्ण मुद्रायें प्राप्त हुईं । इन मुद्राओं में नुकीली टोपी पहने एक पुरूष आकृति और एक अस्पष्ट मुद्रालेख अंकित है। मुद्रा के पृष्ठ भाग में एक स्त्री आकृति सिंहासनस्थ है। इनसे इस तथ्य की भी पुष्टि हुई कि ठाकुरद्वारा तथा काशीपुर में पहली शती ई0 से मानव की बसासत नगरों का रूप ले चुकी थी। मुनि की रेती से एक मुद्रा भंडार का भी पता चला है जिसमें हुविष्क की 44 मुद्रायें तथा एक स्वर्ण मुदा् थी। कुमाऊं में सेनापानी के पास बालुकाष्म निर्मित शुंगकालीन पुरावशेष मिलने की भी जानकारी प्राप्त हुई है ।

यमुनाघाटी से शीलवम्र्मनके बाड़वाला इष्टिका लेख एवं शिव भवानी का अंबाड़ी शिलालेख इस क्षेत्र के पुरातत्व की एक गौरवशाली उपलब्धि मानी जाती है। इन शिलालेखेंा से ज्ञात होता है कि उस समय यमुनाघाटी में अश्वमेध यज्ञ करना परम पावन समझा जाता था उक्त दोनों नरेशों ने इन स्थानों पर अश्वमेध यज्ञ भी किये थे।

इतिहास के काल क्रम को जानने का एक सशक्त माध्यम मुद्रायें रही हैं। भारतीय इतिहास में दूसरी शती ई0 पूर्व से दूसरी शती ई0 तक कुणिन्दों के सशक्त और प्रभावशाली संगठन का उल्लेख मिलता है जो कबीलाई था। इन लोगों ने अपनी स्वतंत्र ताम्र और रजत मुद्रायें जारी की थीं जिनमें से अनेक अल्मोड़ा जनपद में प्राप्त हुई हैं। अल्मोड़ा मुद्राओं की प्राप्ति से कुणिन्दों के सम्राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में विस्तारके अतिरिक्त अनेक कुणिन्द नरेशों के नाम प्राप्त हुए। इन मुद्राओं में ब्राह्मी और खरोष्टी लिपि का प्रयोग किया गया है।अभिप्रायों में चंवर लिए एक स्त्री आकृति तथा मृग सदृश पशु अंकित किये गये हैं। रजत मुद्राओं की प्राप्ति से इस अंचल के स्थानीय शासन तंत्र द्वारा सम्भवतः पहली बार सुदृढ़ अर्थव्यवस्था हेतु मुद्राओं के चलन की बात प्रकाश में आयी। गरूड़ के नजदीक पिंगलों ग्राम तथा श्रीनगर के नजदीक से भी ताम्र मुद्राये मिलने की जानकारी प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार की निधि देहरादून जनपद के जौनसार भाभर से प्राप्त हुई जिन्हें विद्वानों ने द्वितीय शती की यौधेय मुद्रायें माना है। लैंसडाउन से भी यौधेयों की ताम्र मुद्रायं प्राप्त हुई हैं जिनमें अभिलेखों के अतिरिक्त शिवपुत्र कार्तिकेय को दर्शाया गया है। कुमाऊं में यौधेयों तथा कुणिन्दो के सिक्के प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। गुप्तकाल के अभ्युदय के समय कुमाऊं भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। इस समय कर्तपुर अथवा कार्तिकेयपुर एक महत्वपूर्ण राज्य बन चुका था।

उत्तराखंड के इतिहास, शिल्प और संस्कृति को जानने का समय समय पर विद्वानों ने प्रयास किया। हेनवुड तथा कार्नेक ने शोध कार्याें की जो श्रंखला शुरू की वह अनेक विद्वानों के प्रयास से आगे बढ़ती चली गयी। कनिंघम,एटकिंसन,फ्यूहरर,कीलहार्न जैसे विदेशी विद्वानों की परम्परा को राहुल ,एलन,एलतेकरआदि ने आगे बढ़ाया। लेकिन लौकिक वास्तु के सम्यक विवेचन का अध्याय जरा देर में ही प्रारम्भ हुआ।

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उत्तराखंड को मंदिरों का गृह प्रदेश माना जाता है। यद्यपि ब्यानधुरा से प्रथम शती के वेदिका स्तम्भ एवं काशीपुर उत्खनन से गुप्तकालीन मंदिर के अवशेष भी प्राप्त हुए है तथापि उत्तराखंड में मंदिरो के अस्तित्व के निश्चित प्रमाण लगभग सातवीं शती से प्रारम्भ होते हैं।

कत्यूरी काल मंदिर स्थापत्य का स्वर्णकाल था। उनके काल में अनेक मंदिर, नौले एवं प्रतिमाओं का निर्माण किया गया । स्थानीय मंदिरवास्तु का विस्तार सम्भवतः महापाषाण समाधियों ,अश्वमेध चितियों से हुआ। मध्य हिमालय क्षेत्र के मंदिर वैदिक आश्रमों से विकसित हुए। समूचे उत्तरांचल के अधिकांक्ष मंदिर शिखर शैली के हैं। इन मंदिरों में जागेश्वर, कटारमल, पातालभुवनेश्वर, एक हथिया देवाल हंै। दूसरी प्रकार के मंदिर, पीढा देवल हैं। इनमें विशालकाय प्रस्तरखंड एक दूसरे से फांसकर शिखर को पिरामिड की तरह का आकार दे दिया जाता है । इनमें नारायणमंदिर, बद्रीनाथ मंदिर, कपिलेश्वर महादेव तथा जागेश्वर का केदार मंदिर हैं। तीसरे प्रकार के मंदिर गजपृष्ठाकृति मंदिर है। इनमें जागेश्वर का नवदुर्गा तथा पुष्टिदेवी मंदिर,बमनसुआल का त्रिनेत्रेश्वर मंदिर है।चंदों ने भी इस क्षेत्र में न केवल अनेक मंदिर बनवाये अपितु अनेक प्रतिमाओं को भी इन मंदिरों में प्रतिष्ठित करवाया। कारीगरों की अद्भुद क्षमता का प्रमाण एक हथिया नौला और एक हथिया देवाल है जिसे पिथौरागढ़ जनपद में किसी एक हाथ के कारीगर ने तैयार किया था।

पर्वतीय क्षेत्र के प्रारम्भिक मंदिर काष्ठ निर्मित ही रहे जो ईंटों की सीढि़यां लांघते हुए प्रस्तर तक आ पहुॅचे। छत्र की सामग्री के रूप में इनमें लकड़ी का व्यापक प्रयोग हुआ। कला की दृष्टि से इस क्षेत्र में पाये जाने वाले दुर्ग अवशेष भी महत्वपूर्ण हैं।
इस क्षेत्र के देवालयों के निर्माण में पूजा पद्धति के साथ साथ गुजरात, उड़ीसा, खजुराहो तथा राजपूताना आदि क्षेत्रों में विकसित वास्तुकला का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। परन्तु यहां की निजी वास्तुकला भी लगातार विद्यमान रही। ऐसा अनुमान है कि पीढ़ादेवल श्रेणी के देवालयों की परम्परा का विकास पर्वतीय क्षेत्रों से मैदानी क्षेत्रों की ओर भी हुआ। देवालयों की यह परम्परा सातवीं शती से प्रारम्भ होकर सत्रहवीं शती तक निरन्तर आगे बढती चली गयी और अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये रखने में भी समर्थ रही।

देवालयों के शिल्प की ही तरह इस अंचल में प्रतिमा शिल्प भी अपने भव्य रूप में मौजूद रहा। मध्यकाल की तो यहां इतनी विपुल मूर्ति सम्पदा मौजूद रही है कि लगता है जैसे समूचा उत्तरखंड ही मूर्ति शिल्प का प्रशिक्षण केन्द्र रहा हो।
ऐसा लगता है कि तीसरी शती ई से यहां मूर्ति कला के विकास के निश्चित सोपान मौजूद है। इसके पश्चात तो लगता है कि जैसे यहां के शिल्पियों की छेनी की टंकार कभी मंद ही नहीं पड़ी और शताब्दियां तक न केवल नवीन शिल्प प्रयोग हुए वरन शास्त्रानुकूल प्रतिमाओं का गढ़न और स्थानीय परम्पराओं से सामंजस्य दर्शाते हुए वे लगभग सत्रहवीं शती तक प्रतिमाओं के संवारने का क्रम जारी रखे रहे। यहां से प्राप्त यक्ष प्रतिमायें सबसे प्राचीन प्रतिमायें हैं तो उसके बाद त्रिविक्रम ,शिव, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा तथा देवी प्रतिमाओं के अतिरिक्त बौद्ध एवं जैन प्रतिमायें भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। अनेक मंदिरों में धातु प्रतिमायें तथा मुखौटे भी मिलते हैं।

बौद्ध धर्मावलम्बियों का भी इस क्षेत्र पर प्रभाव रहा । बौद्ध स्तूपों की प्राप्ति की जानकारी यहां प्रकाशित होती रही हैं । इस लेखक ने बौद्ध देवी तारा की एक प्रस्तर प्रतिमा को अल्मोड़ा जनपद के जखेटा गांव से खोजा। महापंडित राहुल ने बागेश्वर में एक बौद्ध प्रतिमा के होने का वर्णन किया है। गगास घाटी से भी बुद्ध की एक प्रतिमा प्रकाश में आयी है। गढ़वाल के मोरध्वज उत्खनन से मृत्तिका फलक पर तथागत की एक प्रतिमा प्रकाश में आयी है। गोपेश्वर संग्रह में बुद्ध की प्रस्तर प्रतिमा रखी है। एक गुप्तकालीन शीर्ष लाल पत्थर से बना हुआ हरिद्वार से भी प्रकाश में आया है।इसी प्रकार नीती घाटी से दो ताम्र प्रतिमाओं की जानकारी प्रकाशित हुई है । अवलोकितेश्वर की एक प्रतिमा श्री नगर से प्राप्त हुई हैं ।

अब जरूरत है कि इन महत्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहरों का उपयोग क्षेत्र के पर्यटन को भी विकसित करने के लिए योजनाबद्ध रूप से किया जाये। समय की आवश्यकता है कि इस सबके लिए पुराविदों की एक ऐसी समिति बनायी जाये जो गढ़वाल और कुमाउं की सांस्कृतिक निधियों को एक परिपथ बनाकर आपसे में जोडने के कार्यक्रम को सबसे पहले प्रारम्भ करवा सके़ ।

स्मारकों को बचाएं, विरासत को सहेजें
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Mahendra Singh Miral
Mahendra Singh Miral
1 year ago

उत्तराखंड के इतिहास को यहाँ के देवालयों, मुद्राओं एवम बौद्ध स्थलों से जोड़ता हुआ शानदार एवम ज्ञान वर्धक आलेख । और फोटो अतिउत्तम हैं ।

आपका प्रशंशक

(महेंद्र मिराल)

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