हिमवान » लोक आयोजन » कूर्मांचल की रामलीला का समृद्ध इतिहास है

कूर्मांचल की रामलीला का समृद्ध इतिहास है

देश की प्रसिद्व रामलीलाओं में कूर्माचलीय रामलीला का एक समृद्ध इतिहास है। कूर्मांचलीय रामलीला ने हिन्दी रंगमंच के इतिहास तथा देश की प्रसिद्ध रामलीलाओं में अपनी मौलिकता, कलात्मकता, संगीत एवं रागरागिनियों में निबद्ध होने के कारण अलग ही स्थान बनाया है। संगीत प्रधान गेय शैली की रामलीला की परम्परा अल्मोड़ा से ही चारों ओर फैली है। इसलिए कूर्माचलीय रामलीला मुख्यतः अल्मोड़ा शैली की ही रामलीला मानी जाती है।

विद्वानों का मत है कि कुमाउनी शैली की रामलीला का आरम्भ काशी में हुआ । महामना मदन मोहन मालवीय के निर्देश पर प्रयाग के गुजराती मोहल्लें में श्री कृष्ण जोशी उनके पुत्र सत्यानंद जोशी तथा गोपाल दत्त तेवाड़ी ने नवरात्र में रामलीला का मंचन करवाया। प्रयाग में खेली गई यह रामलीला कूर्मांचलीय युवकों के समवेत प्रयास का परिणाम थी तथा कई वर्षाे तक आयोजित होती रही।

हिमांशु साह

कुमाउनी युवकों की अभिनय क्षमता, भाव प्रवणता एवं इस रामलीला की लोकप्रियता को देखते हुए कुमाउनी शेैली की रामलीला का आयोजन पंडित देवी दत्त जोशी ने मुरादाबाद में वर्ष 1830 में करवाया । बरेली में भी इस तरह की रामलीला का मंचन किया गया। अल्मोडा नगर में इस शैेली की रामलीला का सर्वप्रथम मंचन करवाने का श्रेय पंडित बद्रीदत्त जोशी सदर अमीन को जाता है जिन्होनें वर्ष 1860 में गेय शैली की रामलीला का मंचन करवाया था। इस रामलीला को स्व0 बद्रीदत्त जोशी एवं स्व0 गोविंद लाल साह ने आगे बढ़ाया।स्व0 ब्रजेन्द्र लाल साह ने रामलीला को आंचलिक रूप देकर अधिक लोकप्रियबनाने के लिए कुमाउनी में रामलीला लिखी।

अल्मोडा नगर में चंद शासको के काल में भी दशहरे के अवसर पर महल में रंगारंग आयोजन किया जाता था। वर्ष 1697 में राजा उद्योत चंद ने दशै का छाजा अपने महल में बनवाया था। इसमें सभा तथा रंगारंग कार्याक्रम आयोजित किये गये थे।पहलेें अल्मोड़ा में दशहरे के दिन रामजलूस का आयोजन किया जाता था। तब रावण का एक मात्र पुतला बनता था। वर्ष 1900 से पूर्व रामलीला का मंचन भी एक मात्र बद्रेश्वर में होता था। बद्रेश्वर के बाद नंदादेवी में वर्ष 1948 में रामलीला मंचित होना प्रारम्भ हो गई । बाद में नारायण तेवाड़ी देवाल, पांडेखोला, जाखनदेवी, लक्ष्मेश्वर,, चीनाखान,कर्नाटक खोला आदि में रामलीला का मंचन प्रारम्भ हो गया।

त्रिलोचन जोशी

नैनीताल के समृद्ध व्यापारी स्व0 मोतीराम साह ने नैनीताल में वर्ष 1880 में रामलीला प्रारम्भ करवाई यद्यपि यह भी मानना है कि स्व0 दुर्गासाह के प्रयासों से 1897 में नैनीताल में सर्वप्रथम रामलीला का आयोजन हुआ। मल्लीताल नैनीताल में 1912 से रामलीला का मंचन प्रारम्भ हुआ। नैनीताल जनपद में बीरभट्टी में वर्ष 1892 से रामलीला प्रारम हो गई थी। नैनीताल की रामलीला में अल्मोड़ा के कलाकार भी भाग लेते थे।

हिमांशु साह

पिथौरागढ़ में रामलीला का प्रारम्भ सन् 1897 से हुआ। यहां भी रामलीला प्रारम्भ करवाने का श्रे्य स्व0 देवीदत्त जोशी डिप्टी कलेक्टर को जाता है। यह भी माना जाता है कि सन 1902 में स्व0 गंगाराम पुनेठा ने पिथौरागढ़ की रामलीला की नींव रखी। देवीदत्त जोशी के प्रयासों से ही हल्द्वानी में भी रामलीला का मंचन प्रारम्भ हुआ। वर्ष 1910 के आसपास भीमताल में भी रामलीला का मंचन प्रारम्भ हो गया था। बागेश्वर में वर्ष 1890 में स्व0 शिवलाल साह ने रामलीला प्रारम्भ करवाई । एक मत यह भी है कि वर्ष 1930 में बागेश्वर में स्व0 शिवलाल साह ने इसका मंचन प्रारम्भ करवाया। श्री गोविन्द बल्लभ पंत के प्रयासों से बाद में लखनउ में भी रामलीला का मंचन प्रारम्भहुआ था। श्री लक्ष्मी भंडार की रामलीला तो इतनी लोकप्रिय हुई की मध्य प्रदेश आदिवासी कला परिषद द्वारा कुमाउनी शेैली की इस रामलीला को मंचित करने के लिए मध्य प्रदेश आमंत्रित किया गया तथा राष्ट्र् फलक पर देश की सर्वश्रेष्ठ अभिनीत की जाने वाली रामलीलाओं में स्थापित किया।

रामलीला का मंचन प्रारम्भ में हस्तलिखित पांडुलिपि के आधार पर होता था। बाद में प्रिटिंग तकनीकि के विकास से अल्मोड़ा में रामलीला को सर्वसुलभ बनाने के प्रयासों के अन्र्तगत रामलीला नाटकों को प्रकाशित करवाने का वास्तविक कार्य भी प्रारम हो गया। लोक कलाओं के मर्मज्ञ शिवचरण पांडे के अनुसार भीमताल के पंडित रामदत्त जोशी ज्योतिर्विद ने वर्ष 1907 में रामलीला नाटक की विधिवत रचना की। के डी कर्नाटक, गांगी साह, गोविन्द लाल साह, गंगाराम पुनेठा, कुंवर बहादुर सिंह द्वारा भी रामलीला नाटक इस बीच प्रकाशित कराये जाने लगे थे। स्व0 नंदन जोशी ने अल्मोड़ा में रामलीला नाटक को प्रकाशित करवाया तथा उसमें नारदमोह तथा अश्वमेध यज्ञ को भी जोड़ा। डा0 ललित मोहन जोशी के अनुसार पंडित भवानी दत्त जोशी पिथौरागढ़, बाबा खेमानाथ योगराज एवं रामदत्त पांडे ने भी रामलीला नाटकों का प्रकाशन करवाया था। उस समय हिन्दी में सर्वाधिक प्रचलित राधेश्याम रामायण से भी कुछ नये प्रसंग लिये गये। स्व0 कुंदनलाल साह ने वर्ष 1927 में रामलीला नाटक की रचना कर इस परम्परा को और आगे बढ़ाया।श्री लक्ष्मी भ्ंडार ने कबन्ध उद्धार एवं मायावी वध को रामलीला में जोड़ा। लक्ष्मी भंडार ने पर्दे के पीछे से संकेत देने की प्रथा को भी समाप्त करने में अपना योगदान दिया।

त्रिलोचन जोशी

गोस्वामी तुलसी दास द्वारा रचित रामचरित मानस के आधार पर मंचित होने वाली यह रामलीला शास्त्रीय रागरागनियों से आप्लावित है। इसकी संगीत की धुनें लोक संगीत पर आधारित नहीं हैै। भीमताल तथा अल्मोड़ा में मुख्यतः गायन शैली का ही अन्तर है।

बिट्टू कर्नाटक

कूर्मांचलीय रामलीला में नृत्य सम्राट उदयशंकर का अविस्मरणीण योगदान है। रामलीला में नृत्य सम्राट उदयशंकर ने ही पहली बार एक नया प्रयोग किया। उदय शंकर कल्चरल सेंटर ने ही पहली बार परम्परागत सैट का प्रयोग किया जिसमें पंचवटी का सैट लगाकर उसके आस पास ही शेष दृश्य अभिनीत किये गये। कूर्माचलीय रामलीला में नृत्य नाटिका का प्रवेश उदयशंकर की ही देन है। छायाभिनय का प्रयोग भी अल्मोड़ा नगर के रानीधारा में स्थापित अपने सेंटर में उदयशंकर ने ही किया। वर्तमान में लक्ष्मी भंडार इस तकनीकि का प्रयोग कर रहा है।

यह भी कहा जाता है कि अल्मोड़ा की रामलीला पर पारसी थियेटर,, नाटक कम्पनियों, रास मंडलियों तथा कव्वाली पार्टियों का व्यापक प्रभाव पड़ा। रामचरित मानस के अतिरिक्त भी संवाद ग्रहण करने में कोई संकोच नहीं किया गया। धीर -धीरे विकसति हुई शैली के आधार पर अब यह माना जाता है कि कूर्मांचलीय रामलीला की अल्मोड़ा तथा भीमताल ही दो मुख्य पद्धतियां हैं।। इन रामलीालाओं में मंचन के लिए पेशेवर मंडलियां नहीं हैं। रामलीला के आयोजन के लिये प्रतिवर्ष कलाकारों को तालीम देकर तैयार किया जाता है।

स्मारकों को बचाएं, विरासत को सहेजें
Protect your monuments, save your heritage

Subscribe
Notify of
guest
1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Rajesh Joshi
1 year ago

कुमाऊं अंचल में रामलीला के सम्बंध में महत्वपूर्ण जानकारी, धन्यवाद 

error: Content is protected !!