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कुमाऊं में दुर्ग परम्परा

प्राचीन भारतीय राज व्यवस्था में सीमाओं की सुरक्षा का प्रश्न सर्वदा महत्वपूर्ण रहा है। राज्य की सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सीमाओं की सुरक्षा के लिए तत्कालीन शासको द्वारा की गयी व्यवस्थाओं के कई साक्ष्य दृष्टिगत होते हैं। तत्कालीन राजाओं ने सुरक्षात्मक तथ्यों को दृष्टिगत करते हुए अपने राज निवासों को इस प्रकार निर्मित किया कि वे अधिकतम सुरिक्षत एवं शत्रु प्रतिरोधक हों । प्राचीन और मध्यकालीन राज व्यवस्था में दुर्ग या किलों का निर्माण इसी परिपेक्ष्य में होता था जहां से राजसत्ता द्वारा सैन्य शक्ति का संचालन भी किया जाता था।


शास्त्रों में दुर्ग की व्याख्या करते हुए कहा गया है – दुःखेन गच्छत्यत्र अर्थात जहां दुख से पहुॅचा जाये उसे दुर्ग कहते हैं। प्राचीन भारतीय स्थापत्य कला मे दुर्ग शब्द का अभिप्राय रक्षा प्राचीरों से घिरी ऐसी विशाल भवन संरचना से है जिसका निर्माण शत्रु सेना एवं बाह्य आक्रमण से बचाव के लिए किया गया हो। प्राचीनकाल में प्राकृतिक आलम्बनो जैसे पर्वत चोटियों, नदियों, दुर्गम वनों इत्यादि को , जिन्हें पार करना सरल न हो, शत्रु से रक्षा के लिए अतिरिक्त सुरक्षात्मक उपायों के रूप में देखा गया तथा उनके आवरण में सुदृढ़ भवन निर्माण कर आवश्यकतानुसार उन भवनों की परिधि में विविध सुरक्षात्मक अवयवों का निर्माण इस प्रकार से किया जाता था कि इस स्थान कोे युद्ध में विजित करना अत्यन्त कठिन कार्य हो । संकटकाल मेे दुर्ग राजा की सेना और नगर वासियों के लिए सुरक्षित आवास का कार्य करते थे। राजा सेना आदि के साथ इसमे शरण लेकर न केवल अपनी रक्षा करता अपितु सैन्य संचालन की रणनीति भी बनाता था । इस प्रकार श़त्रु के आक्रमणों से प्रतिरोध के लिए दुर्ग का बड़ा महत्व था।

भारत में दुर्गाें के अस्तित्व का प्रमाण हमे प्राचीन काल से ही मिलने लगते हैं । वैदिक काल में भी दुर्ग रचना की जाती थी। ऋग्वेद में दुर्ग के लिए अधिकांक्षतः पुर शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त ब्राह्मण ग्रंथों मे भी पुर शब्द का प्रयोग दुर्ग के लिए हुआ है । लेकिन तत्कालीन साहित्य में पुर शब्द का प्रयोग मुख्यतः सुरक्षात्मक दीवारों से घिरी बस्ती के लिए हुआ है । कालान्तर में पुर शब्द को ही कोट , किला आदि शब्दो से भी भिहित किया जाने लगा। वेदों में लौह दुर्गाें के अतिरिक्त अश्वमयी पुरों का भी उल्लेख है। बाल्मिकी रामायण मे लंका के वर्णन से भी यह स्पष्ट है कि तत्कालीन नगर रक्षा प्राचीरों से युक्त होते थे तथा रक्षा प्राचीरों के उपर ऊंचे सुरक्षा बुर्ज-बनते थे। इनके उपर से नगर के अन्दर आने जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की गतिविधियों पर नजर रखी जाती थी। यहां से शत्ऱुओ की गतिविधियों का दूर से ही पता चल जाता था। महाभारत मेे कहा गया है कि जो नगरी सुदुढ़ प्रकार की रक्षा दीवारो से वेष्ठित दुर्गो से युक्त हो उसी नगर में राजा को निवास करना चाहिये।

पुरातात्विक अवशेेषों में जो दुर्ग पाये जाते हैं उनमें पूर्व हड़प्पाकालीन एक प्राचीन नगर कोटदिजी से प्राप्त हुआ है। इस नगरकी सुरक्षा सुदृढ़ प्राचीर द्वारा की गयी थी। कौशाम्बी, उज्जैन, राजगिरी, वैशाली, राजघाट, श्रावस्ती, मथुरा, अहिच्छत्र आदि स्थानों से भी दुर्ग प्राप्त हुए हैं। इतिहासकारों ने भारत के अनेक बड़े और विशाल नगरों को प्राचीरों से युक्त बताया है। कौटिल्य ने सामरिक दृष्टि से अत्यंत आवश्यक हो चुकेे दुर्ग को कोष तथा सेना से भी अधिक महत्व दिया। प्राचीन पाटिलीपुत्र की रक्षा प्राचीर काष्ठ की बनी हुई थीं। कालीदास ने अपनी रचनाओं में जिन दुर्गाें का वर्णन किया है वेे प्रतोली युक्त विशाल प्रवेशद्वारों से युक्त होते थे।

दुर्गविधानम् में उल्लेख किया गया है कि दुर्ग दो प्रकार से बन सकते थे। एक तो वे जो प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक आश्रय स्थल के रूप में पूर्व से ही विद्यमान हैं तथा दूसरे वे जो मानव निर्मित हों एवं इष्टिका, पाषाण आदि से बनाये जाते हों।

इसी प्रकार औदक दुर्ग ,पार्वत दुर्ग, धान्वन दुर्ग, और वनज दुर्ग के रूप में दुर्ग चार प्रकार से बनाये जाते थे। यहां हम स्थानाभाव के कारण केवल पार्वत दुर्ग की संरचना के सम्बन्ध में विचार करेंगे।

प्राचीन ग्रंथों में इन्हें ऊंची पर्वत चोटियों पर स्थित होने के कारण पार्वत दुर्ग के नाम से जाना गया। कोैटिल्य ने कहा है कि विशाल चट्टानों सदृश सुदृृढ़ दुर्ग पार्वत दुर्ग कहलाता है। कुछ शास्त्रों में कहा गया है कि किसी पहाड़ी के उपर एकान्त में जलाशय सहित बनाया गया दुर्ग पार्वत दुर्ग की श्रेणी में आता है। दुर्ग पर्वत चोटियों के उपर या समीप स्थित होना चाहिये। यह पर्वत श्रेणियों से घिरी हुई घाटी में एवं आवागमन की दृष्टि से दुष्कर मार्ग पर भी स्थित हो सकता था जबकि प्रान्तर प्रकार का दुर्ग पहाड़ी के शीर्ष पर बनाया जाता था।

परन्तु मध्यकालीन दुर्गाें की संरचना उपरोक्त लक्षणों से बिल्कुल ही अलग है। मध्यकाल एवं पश्चातवर्ती दुर्ग अधिक सुव्यवस्थित, आक्रमण प्रतिरोधक, सुदृृढ़, विशाल, भव्य, सामरिक दृष्टि से सुरक्षित एवं जटिल भवन संरचनाओं पर आधारित बनाये गये।

उत्तर गुप्त कालीनी ब्राह्मी लिपि के तालेष्वर ताम्रपत्र में सबसे पहले कोट शब्द का प्रयोग स्थानीय सन्दर्भ में हुआ है।इस ताम्रपत्र में उल्लेख है कि पर्वताकार राज्य की राजधानी में राजा द्वितीवर्मा के मंत्री भद्र विष्णु का कार्यालय कोट में था। उत्तराखंड के संदर्भ में कत्यूरी राजाओं और उनके पराभव के उपरांत चंदों की सत्ता में भी इस क्षेत्र में ऐसे ही दुर्गो का अपना महत्व था जो इस दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में सुरक्षा और सामरिक महत्व की दृष्टि से निर्मित किये गये प्रतीत होते हैं। भले ही ये दुर्ग न तो उतने विशाल थे न ही संरचना में जटिल। परन्तु ये दुर्ग आज भी स्थापत्य की दृष्टि से अत्यंत महत्व के हैं । प्राचीन राजाओं से लेकर गोरखा शासन काल तक कोट बनाने की परम्परा किसी न किसी रूप में चलती ही रही। बम ,पाल आदि शासकों ने कोट बनाने की परम्परा को बनाये रखा।

यहां जहां तक स्थानीय दुर्गों की प्राचीनता का प्रश्न है शंबर असुर के निन्यानबे पुरों को भी कुछ इतिहासकारों ने उत्तराखंड में ही स्थित माना है। गढ़वाल के बावन गढ़ प्रसिद्ध रहे हैं। प्रतीत होता है कि वहां प्रमुख गढ़ बावन रहे होगें इसलिए समूचे क्षेत्र को बावनी के नाम से भी जाना जाता रहा। पंवाड़ा गायक भी गाथाओं में गढ़ बावनी गाया करते थे । वहां छोटे बड़े एक सौ से अधिक गढ़ों की सूची अब प्रकाशित हो चुकी है। इनमें पंवार राजवंश के संस्थापक कनकपाल की प्रसिद्ध चांदपुरगढ़ी, बधाणगढ़, तोपगढ, लहुबागढ़ी, देवलगढ़, नयालगढ़, बनगढ़, राजा सोनपाल का चीलागढ़ तथा पेनखंडागढ़ आदि प्रमुख गढ़ थे।

कोटद्वार से 13 किमी. की दूरी पर मोरध्वज में उत्खनन से जो प्राचीन काल की सामग्री प्राप्त हुई हेै उसमें मिट्टी की एक दीवार भी पायी गयी जिसे सम्भवतः नगर रक्षा हेतु बनाया गया होगा। इसका काल 5वीं शती ईपू. से दूसरी शती ईपू. की सभ्यता से जोड़ा गया है। इसके बाद शुंगकालीन संस्कृति के अवशेष पाये गये हैं जिनमे भी ईटों से बना रक्षा स्तम्भ तथा रक्षा प्राचीर पायी गयी हैं। इसी क्रम में प्राप्त कुषाणकालीन अवशेषों में भी रक्षा दीवारें पायी गयी हैं।

जहां तक कुमाऊं में गढ़ों का प्रश्न है इस प्रकार के गढा़ें के अवशष् अस्कोट के पास का लखनपुर कोट, सीराकोट, सुई, रंगोड़ीकोट, तिखूनकोट, फल्दाकोट आदि हैं । सामरिक रूप से दुरूह सीराकोट किले की विजय और सेनापति पुरूषपंत की गांथायें अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में गॅूजती हैं। सोर घाटी के नौ किले भी बहुत प्रसिद्ध रहे हैं । पृथ्वीगंुसाई ने चंद राजवंश के समय में पिथैारागढ़ का किला बनाया। खगमरा का पुराना कोट कत्यूर कालीन रहा होगा जो अल्मोड़ा में चंदों की राजधानी के स्थानान्तरण, यहां बसासत के विधिवत शुरू होने और चंद राजा भीष्मचंद के खगमराकोट किले के अन्दर गजुवाठिंगा द्वारा वघ किये जाने का भी साक्षी रहा था। राजा भीष्ष्मचंद के साथियों का भी इसी किले में वध किया गया था। उस काल की प्रमुख घटनाओं का गवाह अल्मोड़ा का खगमरा कोट अब केवल इतिहास के पन्नों में ही सुरक्षित है। चम्पावत का राजबुंगा, कर्णकरायत का बाणासुर का किला, अल्मोड़ा का लालमंडी किला, पिथैारागढ़ का कोट आदि अन्य प्रसिद्ध दुर्ग रहे हैं और लगभग सभी में वह विशेषतायें पायी भी जाती हैं जो पार्वत प्रकार के दुर्गों के लक्षण है।

इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता डा0 एम. पी. जोशी ने इस मत का प्रतिपादन किया है कि भीष्म चंद के वध के उपरांत उसके पुत्र बालो कल्याणचंद द्वारा खगमरा कोट को नितांत असुरक्षित देखकर उनके द्वारा आधुनिक पल्टन बाजार व उससे लगे वर्तमान छावनी क्षे़त्र में नये राजनिवास का निर्माण प्रारम्भ किया गया। परन्तु समयाभाव के कारण बालो कल्याणचंद, उसका उत्तराधिकारी रामचंद भी निर्माण की पूरी योजना को सम्पन्न नहीं करा पाये जिसे बाद में कल्याणचंद द्वितीय ने पूरा किया। यह किला लालमंडी कोट कहलाया । अल्मोड़ा का लालमंडी किला लार्ड मौयरा के समय में अंग्रेजों के हाथ लगा इसलिए बाद में इसे फोर्ट मोयरा नाम से भी जाना जाने लगा ।

बसासत के दूसरे चरण के अन्र्तगत राजा रूद्रचंद के कार्यकाल 1567-1597 ई. मे एक नये राजनिवास का निर्माण करवाया गया जो वर्तमान का मल्ला महल कहलाता है। परंतु इसमें केवल प्राचीन रक्षा प्राचीरें और रामशिला मंदिर ही मूूल अवशेष हैं, शेष भवन संरचना नष्ट हो गयी जिसके स्थान पर बाद में अंग्रेजों ने नये भवनों का निर्माण करवाया। एटकिंसन के अनुसार राजा बिजयचंद ने अल्मोड़ा किले का मुख्य द्वार बनवाया था।

पिथैारागढ़ का पुराना कोट सन् 1960 में नष्ट हो गया जिसमें बहुतायत से पकी ईंटो का प्रयोग किया गया था ।

बद्रीदत्त पांडे ने उल्लेख किया है कि राजा कल्याणचंद के समय 1738-1778 ई0 में तराई से कूर्माचल की ओर आने के दो प्रमुख रास्ते थे जिन पर दुर्ग बने थे । इन्ही दुर्गाें में रह कर राज सैनिक प्रधान मार्गोंं की रक्षा करते थे। भमौरी गांव के उपर ही बटेश्वर का दुर्ग था जो भीमताल वाले मार्ग की रक्षा करता था। कल्याणचंद के विरूद्ध युद्ध का नेतृत्व बटेश्वर किले से अली मुहम्मद का सरदार असलत खां कर रहा था। सेनापति शिवदेव जोशी के नेतृृत्व में कुमाउनी वीरों के आगे प्राण बचाकर असलत खां इसी दुर्ग से भागा था।

गिवाड़ पट््टी स्थित लोहबागढ़ी का विशाल किला भी बहुत प्रसिद्ध रहा है। यह किला कभी बहुत ऊंचा और प्रशस्त रहा था। इस किले के भीतर कुछ मंदिरों के अवशेष भी मिलते हैं। किले के अन्दर पानी लाने के लिए एक सुरंग भी थी। जल जमा करने के लिए जलाशयों की व्यवस्था की गयी थी। सन् 1815 तक इस किले में सेना भी रहती थी। इसी प्रकार के एक किले का सन्दर्भ श्री बद्रीदत्त पांडे ने गोपालकोट के नाम से दिया है। चंद राजाओं की फौज यहां रहा करती थी। एक अन्य प्रसिद्ध कोट लखनपुर कोट भी था जो रामगंगा के किनारे स्थित था। नैथाणागढ़ी में गोरखा फोैज रहा करती थी। लोहाकोटी अथवा दानपुर कोट नाम का किला भी प्रसिद्ध कोट था। गोपालकोट तथा रणचुलाकोट भी प्रसिद्ध किले रहे जो कत्यूर घाटी में थे। गोपालकोट में चंदों का खजाना रहता था जबकि रणचूलाकोट के अभी ध्वंसावशेष ही रह गये है।

चम्पावत का राजबंगा एक विशाल दुर्ग है जो राजा सोमचंद ने बनवाया था। किले के निर्माण के सन्दर्भ में एक ताम्रपत्र भी मिला है।

शिल्प एवं स्थापत्य की दृष्टि से एक अन्य किला भी बहुत महत्वपूर्ण है । यह किला बाणासुर का किला कहलाता है।

बाणासुर के किले से एक किमी. उ पू. ओर एक अन्य किले जिसे ऊषाकोट कहा जाता है, के अवशेष मिले हैं जो लगभग 31 वर्ग मी. क्ष्ेात्र में बना हुआ था। इसकी उंचाई अपेक्षाकृत कम है केवल 2.80 मी.। पुरातत्व विभाग को पटवारी क्षेत्र ढ़ेरनाथ में भी एक किले के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

जहां तक इन किलों की वास्तुकला का प्रश्न है इन किलों को बनाने वाले कारीगर दुर्ग निर्माण की परम्परा एवं पद्धतियों से अच्छी तरह परिचित थे।


किले सर्वाधिक उंची पहाडियों पर बनाये गये तथा पूरे परिसर को मोटी और मजबूत रक्षा दीवारों से घेर दिया गया। कोट शबद से स्थानीय रूप् से ऐसा विहित नहीं होता कि इनमें मैदानी क्षेत्रों की भांति विशाल भवन संरचनायें थीं अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्गम टीलों को तराश कर सुदृढ़ प्रवेशद्वार सहित रक्षा दीवार बनायी जाती थी।जिनके चाारों ओर कई बार खाईयां बनाकर किलों को सुरक्षित किया जाता था।

इन दीवारों में स्थानीय सुदृृढ़ एवं विशाल पाषाण खंडों को प्रसाधित कर लगाया गया है। पाषाणखंडों की लम्बाई कभी-कभी तो दो मीटर से भी अधिक है। शस्त्र प्रयोग के लिए दीवारों में अतिरिक्त विधान किया गया। किलों में प्रतोली के साथ मुख्य फाटक थे जिनकी संख्या एक से अधिक भी हो सकती थी। मुख्य फाटकों के पास ही प्रहरियों के लिए विश्रामालय भी थे। जिन्हें सम्भतः प्रहरी कक्षों की तरह अस्त्रशस्त्र रखने के लिए भी प्रयोग किया जाता होगा। मुख्य द्वार तक भी पहुुंचने के लिए सीढि़यों को चढ़ कर ही पहृुंचा जा सकता था। रक्षा दीवार की मोटाई एक से दो मीटर या अधिक और उंचाई भी कभी-कभी तो चार मीटर तक हो जाती थी। निर्माण के लिए प्रयोग किये गये शिलाखंड इतने ज्यादा तराशे गये हैं कि दो शिलाओं की बीच की संधियां अधिकतम संतुलित हो गयी हैं। इनमें गारे के रूप में चूना और रेत का मिश्रण प्रयोग किया गया जान पड़ता है। परन्तु दीवार के अन्दर की ओर मिट्टी के गारे का प्रयोग किया गया है। पानी की व्यवस्था अनिवार्य थी इसलिए निकटतम प्राकृतिक स्त्रोतों से ही जल का प्रबन्ध किया जाता था। पूरे कोट का भविष्य ही यु़द्ध के समय पानी की निर्बाध आपूर्ती पर निर्भर करता था इसीलिए सीराकोट विजय के समय जब तक पानी की आपूर्ती नहीं रोकी गयी तब तक इस कोट को विजित ही नहीं किया जा सका। प्रधान सामंतों के निवास भी दुर्गाें के नजदीक ही बनाये जाते थे ।


कुमाऊं में दुर्ग निर्माण की यह परम्परा गोरखों के आगमन तक भी निरन्तर पल्लवित होती रही। कुछ किलों को अंग्रेजों ने भी संरक्षित करने का प्रयास किया। परन्तु अनेक गौरवशाली शासकों के उत्थान और पतन के साक्षी इन स्मारकों की आभा भी धीरे-धीरे क्षीण होती चली गयी । अब या तो ये किले उजाड़ खंडहरों के रूप में परिवर्तित हो गये हैं अथवा उनको सरकारी कार्यालय बना कर इनके उस स्वरूप को ही विस्मृति के गर्भ में डाल दिया गया है जो इस क्षेत्र के तत्कालीन समाज, इतिहास और संस्कृति को समझने का मूल थे ।

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