हिमवान » लोक कला » उत्सवों का श्रृंगार है हमारी ऐपण

उत्सवों का श्रृंगार है हमारी ऐपण

चन्द्र शेखर पंत, हल्द्वानी

पर्वतीय क्षेत्रों के रिहायशी भवनों के बिभिन्न भागो को मांगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा रचाये
गये नयनाभिराम आलेखन नववधू जैसा सजाते हैं।

इस क्षेत्र की महिलाओं ने अपनी लोक कला को जीवित रखने के लिए पीढि़यों से मौखिक रूप से इस कला को हस्तान्तरित किया है । क्षेत्र में महिलाओँ द्वारा विविध अवसरों पर नित्य प्रति के साज सामान से विभिन्न अलंकरणों को गैरिक पृष्ठभूमि पर इस प्रकार से उकेरा जाता है कि अच्छा भला चित्रकार भी शरमा जाये । रंग संयोजन की इस शैली में वे आकृति परक चित्रांकन आाते हैं जिनमे मात्र प्राकृतिक रंगों जैसे गेरू और पिसे हुए चावल के घोल से भव्य आकृतियों को ज़न्म दिया जाता है । लोक कला की इस स्थानीय शैली को ऐपण नाम से जाना जाता है ।

यह समृद्ध लोक परम्परा समूचे भारत में अलंग-अलग नामों से जानी जाती है । उत्तर प्रदेश में पूरना, राजस्थान में मांडना, सौराष्ट्र में साथिया, महाराष्ट्र व दक्षिण भारत में रंगोली व कोलम, बंगाल से अल्पना नाम से यह कला जानी जाती है जिससे स्थानीयता के प्रभाव हैं परन्तु अलंकरणों से विभेद होता रहा है । कुमाऊँ में प्रत्येक व्रत-त्योहार, उपनयन संस्कार, पूजा नामकरण, विवाह, छठी आदि शुभ अवसरों पर भूमि अलंकरण बनाने की परम्परा है । इसके लिये स्थानीय लोक जगत ने अपने पास की सरलता से उपलब्ध होने वाली वस्तुओं का प्रयोग खाली स्थानों व आंगन को संवारने से किया जिनसे इन स्थानों पर अलंकरण कर घर-द्वारों को सुरूचिपूर्ण और मंगलमय बनाया जा सके ।

ऐपण का अर्थ है-लीपना । वैसे लीप शब्द का अर्थ है अगुंलियों से रंग लगाना न कि तूलिका से रंग भरना । ऐपण की इस विधा में गेरू की पृष्ठभूमि पर पिसे चावल के घोल अथवा कमेठ मिट्ठी से अलंकरण किये जाते हैं । लगातार अभ्यास से दक्ष अंगुलियां ऐपण की योजना को मनोहारी रूप देने लगती हैं ।

हेमंत जोशी, नैनीताल

ऐपण का सृजन अन्दर से बाहर की ओर होता है । केन्द्र की विषय वस्तु का अंकन सर्वप्रथम तथा उसके बाद धीरे-धीरे परिधि की ओर विस्तार होता है । केन्द्र में जो चित्र अंकित किया जाता है वह प्रायः निश्चित अवयवों और परंपराओं के आधार पर निश्चित आकृतियों से परिपूरित होता है । ये आधार ज्यामितीय हो सकते हैं। मध्य में कलाकार को कल्पना की छूट नहीं है जबकि बाह्य भाग कल्पना की निश्चित छूट सहित निर्मित हो सकते हैं । इस भाग में बेलबूटे, डिजाइन बनायी जाती हैं । विषय परम्परा के अनुसार पूर्व निर्धारित हो सकते हैं ।

रूप विन्यास और आलेखनों को अलंकृत करने की जगह को आधार मानकर ऐपण को क्रमशः भूमि ऐपण, चौकी ऐपण, दीवार ऐपण तथा वस्तु परक ऐपण आदि से वर्गीकृत कर सकते हैं । भूमि ऐपण के अन्तर्गत भूमि पर ही गेरू से पृष्ठभूमि तेैयार की जाती है । जिस पर विभिन्न अवसरों पर विशेष चौकी व यंत्रों का निर्माण होता है । चौकी पर अलंकृत होने वाले ऐपण वे हैं जिनके लिए भूमि की अपेक्षा लकड़ी की चौकी पर अवसर विशेष के लिए ऐपण बनायी जाती है । दीवार पर बनने वाले अलंकारिक ऐपणों को दीवार ऐपण नाम दिया है । जबकि सूप कांसे की थाली आदि पर बनने वाले ऐपण वस्तु परक माने जाते हैं ।

हेमंत जोशी, नैनीताल

इस कला में सूर्य, चन्द्र, स्वास्तिक, नाग, शंख, घंटा, विभिन्न प्रकार के पुष्प ,तरह-तरह कीे बेलें व अन्य ज्यामितीय आकृतियां बनायी जाती हैं । बहुतायत से प्रयुक्त होने वाले देव प्रतीक बुरी आत्माओं से रक्षा व लोक कल्याण का भाव अपने में समेटे हुए हैं । छोटी मोटी लोक कथाएँ व धार्मिक विश्वास इन आकृतियों के प्रेरणा स्रोत रहे हैं । साथिया या स्वास्तिक सभी लोक कलाओं का अनिवार्य अंग है । इसके बिना कोई भी अलंकरण पूरा नहीं होता । किसी भी शुभ कार्य में बिन्दु को गणेश की तरह सर्वप्रथम स्थापित किया जाता है । इसकी चार भुजायें चार वर्ण, चार आश्रम, चार दिशायें व चार युग अथवा वेदों को इंगित करती हैं । यह शक्ति, प्रगति, प्रेरणा व शोभा की भी सूचक हैं ।

भूमि ऐपणों में शिव की पीठ, सरस्वती चौकी, महालक्ष्मी की चौकी, धूलिअर्घ, चाामुण्डा चौकी के अलावा देहली ऐपण भी सम्मिलित हैं ।

देहली द्वार से लगुली, टपुकिया, मोतीचूर, सुनजई कोठा व आड़ा आदि बनाने की परम्परा है जिनको अनेक प्रतीकों व कमलदल से अलंकृत किया जाता है ।

हेमंत जोशी, नैनीताल

कुमाऊँ क्षेत्र के ऐपण तंत्र से भी सम्बन्ध रखते प्रतीत होते हैं । वैेसे लगभग सभी आकृतियां प्रतीकात्मक हैं । सृष्टि की उत्पत्ति शिव और शक्ति के संयोजन से हुई है । इन दोनों शक्तियों को त्रिभुज़ के माध्यम से व्यक्त लिया जाता है । ये दोनो त्रिभुज आपस में एक दूसरे को काटते हुए अधोमुखी तथा उध्र्वमुखी बनाये जाते हैं । त्रिभुज के तीनों बिन्दु महालक्ष्मी, महाकाली व सरस्वती के प्रतीक भी माने जाते हैं । तंत्र में बीज या बिन्दु को सृष्टि का आधार माना जाता है । बिन्दु से महाबिन्दु की उत्पत्ति शिव तथा शक्ति के मिलन से हुई हे। शक्ति के साकार रूप में ही शिव का निराकार रूप अपना आकार ग्रहण करता है, शिव शक्ति का संयोजन स्थल मिश्र बिन्दु कहलाता है । अधोमुखी त्रिभुज जल और उध्र्वमुखी अग्नि का प्रतीक समझे जाते हैं । त्रिभुजों के बीच का स्थान जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाता है । त्रिभुजों को घेरने वाले वृत्त ब्रहमांड के प्रतीक हैं । इनको कमल दल से अलंकृत करने का विधान है । कमलदल जीवन की पवित्रता एवं उर्वरता को आभासित करते हैं । बिन्दु का प्रयोग सभी आलेखनों में बहुतायत से होता है। यह स्थायित्व का प्रतीक है । कुछ विद्वान इसे अनंत, ब्रह्मांड या आकाश. का प्रतीक मानते हैं । वर्ग पृथ्वी को प्रदर्शित करता है । डिजाइनों में प्रयुक्त वृत्त संसार की गतिक अवस्था का भाव लिए है । यह नाद को व्यक्त करता है । ऐपण में प्रयुक्त मछली सौभाग्य का, गज बुद्धि का तथा नाग अनंत का
प्रतीक है । ऐपण में पूजन की सामग्री को भी प्रमुखता से स्थान मिला है । शुभ की कामना से दीपक, शंख, घंटी का अंकन कलाकारों द्वारा स्वतंत्रता से किया जाता है ।

कुमाऊँनी लोक कला से निश्चित लोक तत्व निहित हैं । कमलदल सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाला पुष्प है । वृक्ष जैसी आकृतियाँ बहुतायत से प्रयुक्त हुई हैं । धूलिअर्घ को कुछ लोग घट तथा कुछ लोग शाखाओं सहित वृक्ष मानते हैं । संभवतः वृक्ष ने फलने फूलने की प्रवृत्ति और सम्पन्नता से सम्बन्ध रखने के कारण स्थान पाया होगा । सितारों को सप्तर्षि के रूप में जनेऊ चौकी में आलेखित किया-जाता है । आकारीय स्वरूप के आधार पर कुछ ऐपण रेखा प्रधान हो सकते हैं जैेसे वसुधारा, विभिन्न चौकीयाँ, अलंकरण प्रधान जैसे गनेलिया व सांगलिया बेल, आकृति प्रधान जैसे थापे व पट्ट, ज्यामिती प्रधान जैसे बरबूँद, क्षेपाकन प्रधान जैसे हाथ के थापे, कथा प्रधान जैसे दुर्गा, बटसावित्री आदि ।

सृजन अन्दर से बाहर की ओर होता है । केन्द्र की विषय वस्तु का अंकन सर्वप्रथम तथा उसके बाद धीरे-धीरे परिधि की ओर विस्तार होता है । केन्द्र में बनाया जाते चित्र निश्चित अवयवों और परम्पराओं के आधार पर निरुपित किया जाता है । जिसमें ज्यामितीय आधार हो सकते हैं ।

आधुनिकता की होड़ में जबकि विश्वास निरन्तर जड़ होते जा रहे हैं, महिलाओं द्वारा संजोयी गयी इस कला के प्रतिमान कम से कम पर्वतीय-क्षेत्र में अभी भी सुरक्षित रखने की प्रवत्ति में हृास नहीं हुआ है। यह अलग बात है कि प्राकृतिक रंगों के स्थान पर सिंथेटिक रंगों का प्रचलन बढ़ रहा है । इसकी परिणति है कि जो सुघड़ता और लोच गेरूई पृष्ठभूमि पर बिस्वार अथवा कमेठ से आभासित होती है उसके स्वरूप में लोक कला का कमतर होता स्वरूप नजर आने लगा है ।

गिरीश तिवारी

स्मारकों को बचाएं, विरासत को सहेजें
Protect your monuments, save your heritage

Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
error: Content is protected !!